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________________ प्रथमखण्ड का ० १ - ई० शब्दद्रव्यत्वसाधनम् ) अथ शब्दे बाधकसद्भावात् तथा तत्परिकल्पनम् न बाणादौ विपर्ययात् । ननु न शब्देकत्व - विषयं प्रत्यक्षं तावदस्य बाधकम्, समानविषयत्वेन तस्य तद्द्बाधकत्वाऽयोगात् । क्षणिकत्वविषयं तु शब्देऽन्यत्र वा विवादगोचरचारीति न तद्बाधकं युक्तम् । न चानुमानं प्रत्यभिज्ञानबाधकम् प्रत्यभिज्ञानस्य मानसप्रत्यक्षत्वाभ्युपगमात् तदेव ह्यनुमानस्य कशाखाप्रभत्वादेर्बाधिकमुपलब्धम्, न पुनरनुमानं तस्य । अथ शब्दैकत्वग्राहक प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षस्य तदाभासत्वादनुमानं स्थिरचन्द्रार्कादिग्राहकस्येव देशान्तरप्राप्तिलिंगजनितानु मानवद् बाधकं भविष्यति । कथं पुनरस्य प्रत्यक्षाभासत्वम् ? 'अनुमानेन बाधनाद' इति चेत् ? श्रनेनाप्यनुमानस्य बाधनादनुमानाभासत्वं किं न स्यात् ? अथानुमानबाधित विषयत्वाद् नैतदनुमानबाधकम् । अनुमानमप्येतद्वाधितविषयत्वाद् नास्य बाधकमिति प्रसक्तम् । श्रथ साध्याऽविनाभावि लिंगजनितत्वान्नानुमानमेतद्बाध्यम् । एकशाखा प्रभवत्वानुमानमपि तह्यमिताग्राहिप्रत्यक्ष बाध्यं न स्यात् । अथ पक्षे एव व्यभिचाराद् न साध्याविनाभूत हेतु प्रभवत्व मे कशाखाप्रभवत्वानुमा नस्य । तत् शब्दक्षणिकत्वानुमानेऽपि समानम् । ५४३ - किन्तु यह बात मान लेने पर यह आपत्ति है कि बाणादि भी पूर्वपूर्व से उत्तर उत्तर क्षण और देश में नये नये सजातीय उत्पन्न हो यावत् लक्ष्य के समीप में उत्पन्न अन्तिम बाण लक्ष्य से सम्बद्ध होता है ऐसा भी क्यों न माना जाय ? और ऐसा तो सभी सक्रिय द्रव्य के लिये माना जा सकेगा, फलत: क्रिया ही नामशेष हो जाने से 'क्रियावाला हो वह द्रव्य' ऐसा द्रव्य का लक्षण भी संगत न हो सकेगा । यदि कहें कि प्रत्यभिज्ञा से बाणादि में नित्यत्व ( स्थायित्व ) सिद्ध होने से नये नये की उत्पत्ति वाली कल्पना नहीं करेंगे तो फिर शब्द में ऐसी कल्पना मत कीजिये । वहाँ भी एकत्व ग्राहक 'देवदत्तभाषित शब्द सुनता हूँ' ऐसे आकार की प्रत्यभिज्ञा की उत्पत्ति अबाधित रूप से अनुभवसिद्ध है । ऐसा नहीं कह सकते कि 'यह प्रत्यभिज्ञा तो 'काट देने पर नवजात केश-नखादि' के समान अपर अपर उत्पत्तिमूलक होने वाली एकत्वप्रत्यभिज्ञा से तुल्य है अतः वह प्रमाणभूत नहीं' - ऐसा कहेंगे तो बाणादि की प्रत्यभिज्ञा में भी अप्रामाण्य की आपत्ति होगी । [ शब्द में एकत्व की प्रत्यभिज्ञा निर्वाध है ] पूर्वपक्षी:-‍ :- शब्द में एकत्व ग्राहक प्रत्यभिज्ञा का बाधक विद्यमान होने से, जलतरंगन्याय से नयेनये शब्द के उत्पाद की कल्पना ठीक है, बाणादि स्थल में कोई बाधक नहीं है तो नये नये की कल्पना क्यों करे ? - उत्तरपक्षी:- शब्दस्थल में कौन बाधक है ? शब्देकत्वविषयक प्रत्यक्ष तो प्रत्यभिज्ञा का बाधक हो नहीं सकता क्योंकि वह तो प्रत्यभिज्ञा का समान विषयक होने से उसका बाधक बन नहीं सकता । शब्द में क्षणिकत्व का प्रत्यक्ष तो स्वयं ही विवादग्रस्त है अत: उसे एकत्वप्रत्यभिज्ञा का बाधक मानना अयुक्त है। अनुमान भी उसका बाधक नहीं है, क्योंकि प्रत्यभिज्ञा मानसप्रत्यक्षरूप होने से वही अनुमान का बाधक बनेगा जैसे कि फल में अपक्वता का प्रत्यक्ष एकशाखाप्रभवत्वहेतुक पक्वता के अनुमान का बाधक होता है । वहाँ अनुमान को प्रत्यक्ष का बाधक नहीं माना जाता । Jain Educationa International पूर्वपक्ष:- शब्द में एकत्ववोधक प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्षाभासरूप होने से अनुमान उसका बाधक हो सकेगा, जैसे कि देशान्तरप्राप्तिहेतुक गति अनुमान चन्द्र-सूर्यादि में स्थिरताबोधक प्रत्यक्ष का बाधक होता है । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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