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________________ प्रथमखण्ड का० १-ई० शब्दद्रव्यत्वसाधनम् ५४१ असदेतत्-सिद्ध ह्यात्मनो विभुत्वे तन्निदर्शनादाकाशस्य विभुत्वसिद्धिः, तत्सिद्ध श्चात्मनो विभुस्वसिद्धिरितीतरेतराश्रयदोषप्रसंगाव नाप्याकाशस्य विभुत्वसिद्धिरिति साध्यविकलता तदवस्थैव । यच्च शब्दस्य गुणत्वसाधकमनुमान, तत्र सत्तासम्बन्धित्वात्' इति हेतौ सत्तायाः तत्संबन्धित्वहेतोः समवायस्य चासिद्धत्वादसिद्धता, 'प्रतिषिध्यमान द्रव्यकर्मत्वे सति' इति विशेषणस्य चाऽसिद्धता, शब्दस्य द्रव्यत्वात् । [शब्दो द्रव्यं क्रियावत्त्वात् ] तथाहि-द्रव्यं शब्दः क्रियावत्वात् , यद्यत् क्रियावत् तत्तद् द्रव्यं यथा शरः, तथा च शब्दः, तस्माद् द्रव्यम् । निष्क्रियत्वे श्रोत्रेणाऽग्रहणप्रसंगः, तेनाऽनभिसम्बन्धात् । तथापि ग्रहणे श्रोत्रस्याप्राप्यकारित्वप्रसक्तिः । तथा च, 'प्राप्यकारि चक्षुः बाह्य न्द्रियत्वात् त्वगिन्द्रियवत' इत्यस्य श्रोत्रेणानैकान्तिकत्वप्रसक्तिः । संबन्धकल्पनायां वा, श्रोत्रं वा शब्ददेशं गत्वा शब्देनाभिसम्बध्येत शब्दो वा श्रोत्रदेशमागत्य तेनाऽभिसम्बध्येत ? न तावत् प्रथमः पक्षः, स्वधर्माऽधर्माभिसंस्कृतकर्णशष्कुल्यवरुद्धनभो. देशलक्षणश्रोत्रस्य शब्दोत्पत्तिदेशे निष्क्रियत्वेन तथाप्रतीत्यभावेन च गत्यसम्भवात् । गत्यभ्युपगमे वा विवक्षितशब्दापान्तरालवत्तिनामन्यान्यशब्दानामपि ग्रहणप्रसंगः, सम्बन्धाऽविशेषात् । अनुवातप्रतिवात. को उपलभ्यमान गुण का अधिष्ठान है, उदा० आत्मा। इस हेतु से आकाश में विभुत्व (व्यापकत्व) सिद्ध होने से आत्मा में विभृत्व की सिद्धि में दृष्टान्त भूत आकाश में साध्यशून्यता दोष नहीं है। B तथा साधनशून्यता भी नहीं है-हम लोगों को प्रत्यक्ष ऐसे शब्दगुण का अधिष्ठानत्व आकाश में सिद्ध है। शब्द में a हम लोगों के प्रत्यक्ष की विषयता अथवा b गुणत्व असिद्ध नहीं है। श्रोत्रेन्द्रिय के व्यापार से प्रत्यक्ष बुद्धि में स्पष्ट रूप से शब्द का प्रतिभास होता है । b तथा, 'शब्द गुण है क्योंकि उसमें द्रव्यत्व या कर्मत्व प्रतिषिद्ध हैं और वह सत्ता का संबन्धि है' इस अनुमान से शब्द में गणत्व की सिद्धि होने पर, पथ्वी आदि का उसे गुण माने तो बाधक प्रमाण के होने से तथा निराश्रित गुण असिद्ध होने से आखिर उसे आकाश में ही आश्रित मानना चाहिये-यह सिद्ध होगा, इस प्रकार आकाशरूप दृष्टान्त में साधन शून्यता भी नही ।-तो, [ दृष्टान्त में अन्योन्याश्रय दोषापत्ति ] यह बात गलत है क्योंकि यहाँ एक तो अन्योन्याश्रय दोष प्रसंग है-आत्मा विभू सिद्ध होने पर उसके दृष्टान्त से आकाश का विभुत्व सिद्ध होगा और उसके सिद्ध होने पर आत्मा में विभूत्व सिद्ध हो सकेगा, फलतः आकाश में भी विभुत्व की सिद्धि न होने से दृष्टान्त में साध्यशून्यता दोष तदवस्थ रहा । तथा दूसरा, जो शब्द में गुण व साधक अनुमान दिखाया उसमें सत्तासम्बन्धित्व यह अंश असिद्ध है क्योंकि सत्ता और तत्सम्बन्धिताकारक समवाय दोनों ही असिद्ध है। तथा शब्द में 'द्रव्यत्व प्रतिषिद्ध होने से' यह हेतु का विशेषण अंश भी असिद्ध है, क्योंकि जैन मत से शब्द द्रव्यरूप है। [शब्द में द्रव्यत्वसाधक चर्चा ] वह इस प्रकार:-'शब्द द्रव्य है क्योंकि क्रियाशील है, जो जो सक्रिय होता है वह द्रव्य होता है जैसे तीर, शब्द भी सक्रिय है अत: द्रव्यरूप है ।' यदि शब्द को निष्क्रिय मानेंगे तो दूरदेशोत्पन्न शब्द का श्रोत्र के साथ सम्बन्ध न होने से श्रोत्र से उसका ग्रहण नहीं होगा। तथापि यदि ग्रहण मानेंगे तो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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