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________________ ५३८ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ अव्यतिरेके च ततस्तद्वदेव तस्या अपि द्रव्यत्वमिति 'प्रतिषिध्यमानद्रव्यत्वे सति' इति विशेषणमसिद्धम् । अपि च बुद्धगुणत्वसिद्धावनाधारस्य गुणस्याऽसंभवात् तदाधारभूतस्याऽऽत्मनो द्रव्यत्वसिद्धि , तत्सिद्धेश्च द्रव्यकर्मभावप्रतिषेधे सति तदाश्रितत्वेन तस्था गुण त्वसिद्धि रीतीतरेतराश्रयत्वम् । किंच, आत्मनोऽप्रत्यक्षत्वे बुद्धस्तविशेषगुणत्वेऽस्मदाधुपलभ्यमानत्वविरोधः। तथाहि-येऽत्यन्तपरोक्षगुणिगुणा न तेऽस्मदादिप्रत्यक्षा. यथा परमाणुरूपादयः, तथा च परेणाभ्युपगम्यते बुद्धिः, तस्माद् नास्मदादिप्रत्यक्षा। न च वायुस्पर्शेन व्यभिचारः, वायोः कश्चिद् तदव्यतिरेकेण तद्वत् प्रत्यक्षत्वात् , स्पर्शविशेषस्यैव तत्त्वात् । अस्मदादिप्रत्यक्षे च बुद्ध रत्यन्तपरोक्षात्मविभुद्रव्यविशेषगुणत्वविरोधः। तथाहि-यद् अस्मदादिप्रत्यक्ष, न तद् अत्यन्तपरोक्षगुणिगुणः, यथा घटरूपादि, तथा च बुद्धिः । न च वायुस्पर्शेन व्यभिचारः, पूर्वमेव परिहतत्वात् । ततोऽस्मदादिप्रत्यक्षत्वे बुद्ध नात्यन्तपरोक्षात्मविशेषगुणत्वम् । तत्त्वे वा नास्मदादिप्रत्यक्षत्वमित्यसिद्धोऽस्मदाद्युपलभ्यमानलक्षणविशेषणोऽपि हेतुः। अथात्मनः प्रत्यक्षत्वाभ्युपगमाद नायं दोषः, नन्वेवं तस्य प्रत्यक्षत्वाभ्युपगमे हर्ष-विषादायनेकविवर्तात्मकस्य देहमात्रव्यापकस्य स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वाद् न युगपत सर्वदेशावस्थिताशेषमूर्तद्रव्य बुद्धि यदि आत्मा से अव्यतिरिक्त ही मानी जाय तब तो आत्मा की तरह बुद्धि भी द्रव्यरूप सिद्ध होगी। फिर 'प्रतिषिध्यमानद्रव्यत्व' यह विशेषण असिद्ध हो जायेगा। तथा इस प्रकार अन्योन्याश्रय भी है-बुद्धि में गुणत्व सिद्ध होने पर, निराधार गुण असम्भव होने से उसके आधारभूत आत्मा में द्रव्यत्व की सिद्धि होगी और आत्मा में द्रव्यत्व सिद्ध होने पर, बद्धि में द्रव्यरूपता और कर्मरूपत का प्रतिषेध कर के, आत्मद्रव्याश्रित होने से बुद्धि में गुणरूपता की सिद्धि होगी। [बुद्धि में परोक्षात्मगुणता असंगत ] दूसरी बात, आत्मा यदि अप्रत्यक्ष है और बुद्धि उसका विशेषगुण है तो 'हम लोगों से उपलभ्यमानत्व' का विरोध होगा। वह इस प्रकार:-अत्यन्तपरोक्षगुणी वस्तु के गुण हमलोगों के प्रत्यक्ष का विषय नहीं होते, उदा० परमाणु के रूपादि । बुद्धि को भी प्रतिवादी अत्यन्त परोक्ष आत्मा का गुण मानता है अतः वह हमारे प्रत्यक्ष का विषय नहीं होगी । यदि कहें-वायु परोक्ष होने पर भी उसके स्पर्श का प्रत्यक्ष होने से हेतु साध्यद्रोही है-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि वायु और उसका स्पर्श कथंचिद् अभिन्न है अत: स्पर्शवत् वायु भी प्रत्यक्ष ही है । तथा मतविशेष के अनुसार स्पर्शविशेष ही वायु है, वायु किसी द्रव्य का नाम नहीं है । तथा बुद्धि यदि हम लोगों को प्रत्यक्ष होगी तो उसमें अत्यन्त परोक्ष विभु आत्मद्रव्य के विशेष गुणत्व का विरोध होगा। देखिये, जो हम लोगों को प्रत्यक्ष है वह अत्यन्तपरोक्ष गुणी का गुण नहीं होता, उदा० घट के रूपादि बुद्धि भी हम लोगों को प्रत्यक्ष है । यहाँ भी वायु के स्पर्श में साध्यद्रोह का उद्भावर शवय नही क्योंकि पहले ही उसका परिहार हो चुका है। इस प्रकार बद्धि को हम लोगों के प्रत्यक्ष का विषय मानने पर उसमें अत्यन्त परोक्ष आत्मनि सिद्ध नहीं होगा । यदि उसे आत्मा का विशेषगुण मानना है तो वह हम लोगों के प्रत्यक्ष का विषय नहीं हो सकती। और तब आत्मा में विभुत्व का साधक अस्मदाद्युपलभ्यमानत्व विशेषणवाला हेतु असिद्ध हो जायेगा। [आत्मा को प्रत्यक्ष मानने में देहपरिमाण की सिद्धि ] यदि कहें कि -आत्मा को प्रत्यक्ष ही मानते हैं अतः कोई पूर्वोक्त दोष नहीं है-तो इस प्रकार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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