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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
उपलब्धः, प्रतिनियताभिप्रायाणामप्येक सूत्रधाराऽनियमितानां तत्करणाऽविरोधात इति नैकः कर्ता मित्यादीनां सिद्धिमासादयति । अत एव न तन्निबन्धना सर्वज्ञत्वसिद्धिरपि तस्य युक्ता। .
तदेवं नित्यत्वादिविशेषसाकल्यसाधकानुमानाऽसंभवात तद्विपर्ययसाधकस्य च प्रसंगसाधनस्य तत्र भावात कथं न विशेषविरुद्धावकाशः ? अथ शरीराविमबुद्धिमत्कारणत्वव्याप्तं यदि क्षित्यादी कार्यत्वमुपलभ्येत तदा ततस्तत्र तत् सिद्धिमासादयत् तथाभूतमेव सिध्येदिति भवेत् कार्यत्वादेविरुद्धत्वम् , साध्यविपर्ययसाधनात , न च तथाभूतं तत तत्र विद्यत इति कथं विरुद्धता ? न, परप्रसिद्धपक्षधर्मत्वम् विपर्ययव्याप्तिं वाऽश्रित्य विरुद्धताभिधानात् । परमार्थतस्तु कार्यत्वविशेषस्य क्षित्वादावसिद्धत्वम् तत्सामान्यस्य त्वनकान्तिकत्वम् इति प्रतिपादितम् । सर्वेषु चेश्वरसाधनायोपन्यस्तेष्वनुमाने. ध्वसिद्धत्वादिदोषः समान इति कार्यत्वदूषणेनैव तान्यपि दूषितानि इति न प्रत्युच्चार्य दृष्यन्ते । महेश्वरस्य च नित्यत्वं तद्वादिभिरभ्युपगम्यते, न चाऽक्षणिकस्य सत्त्वं संभवति इति प्रतिपातयिष्यामः ।
[शिविकावहनादि एक कार्य की अनेक से उपपति ] यह जो कहा है-महान राजभवन आदि के निर्माण में लगे हुए अनेक शिल्पीयों में किसी एक नियामक व्यक्ति के अभिप्राय से ही ऐकमत्य (तुल्याभिप्रायता) होता है, उसी तरह प्रस्तुत में भी पृथ्वी आदि अनेककार्यों के निर्माण में लगे हुए अनेक व्यक्तियों का भी कोई एक नियामक होना जरूरी है और वही ईश्वर है'-[ ४०८-४ ] वह भी असंगत है। कारण, ऐसा नियम ही नहीं है कि सर्व कार्यों को करनेवाला कोई एक ही होना चाहिये अथवा अनेक करने वाले हो तो उ नियामक होना ही चाहिये । कार्यकर्ताओं में अनेक प्रकार देखे जाते हैं, जैसे: । कभो तो एक कार्य का एक हो निर्माता होता है जैसे एक वस्त्र का एक जुलाही । b कभी अनेक कार्यों का एक निर्माता होता है जैसे घट-शराव-उदंचनादि कार्यों का एक कुम्हार । c कभी अनेक कार्यों के अनेक निर्माता होते हैं जैसे घट-वस्त्र और बैलगाडी आदि का कुम्हार, जुलाहा, सुथार । d कभी एक ही कार्य के अनेक कर्ता होते हैं जैसे एक ही शिबिका-वहन कार्य में अनेक सेवक लगे होते हैं। तथा, राजभवनादि अनेक शिल्पी संपाद्य कार्य में भी एक सूत्रधार से नियन्त्रित होकर ही वे सभी भवन निर्माण के लिये उद्यम करते हों ऐसा नियम नहीं देखा गया। क्योंकि एकसूत्रधार का नियन्त्रण न होने पर भी परस्पर मिलकर किसी एक निश्चित अभिप्रायवाले बनकर भवनादि का निर्माण वे कर सकते हैं-इस में कोई विरोध नहीं है । अत: एक सूत्रधार की कल्पना के दृष्टान्त से पृथ्वी आदि के एक कर्ता की सिद्धि होना दुष्कर है । फलतः, एककर्तृ मूलक सर्वज्ञता की सिद्धि भी ईश्वर में अयुक्त है।
[नित्यत्वादिविशेष के विरुद्ध अनुमानों का औचित्य ] उपरोक्त चर्चा से यह सिद्ध होता है कि ईश्वर में नित्यत्व सर्वज्ञत्वादि सकल विशेषों का साधक कोई बलिष्ठ अनुमान संभव नहीं है, दूसरी ओर असर्वज्ञत्वादि का साधक प्रसंगसाधनादिरूप अनुमान प्रमाण विद्यमान है-अत: इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है कि-विशेषविरुद्ध अनुमानों को क्यों अवकाश नहीं ? यदि कहें-"पृथ्वी यदि में सशरीरिबुद्धिमत्कर्तृ कत्व का व्याप्य ऐसा कर्तत्व यदि उपलब्ध होता तब तो वहाँ कर्ता सिद्ध होने के साथ शरीरी कर्ता की ही सिद्धि हो जाती, फलत: अशरीरीकर्ता से विपरीत शरीरीकर्ता की सिद्धि करने वाला हेतु कार्यत्व, विरुद्ध नामक हेत्वाभास बन जाता, किन्तु बात यह है कि शरीरिबुद्धिमत्कर्तृ कत्व का व्याप्यभूत कार्यत्व पथ्वी आदि में उपलब्ध
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