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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
न च व्यापकानुपलब्धावपि पक्षधर्मत्वाऽन्वय-व्यतिरेकनिश्चयस्य स्वसाध्याऽव्यभिचारित्वनिश्चय. लक्षणस्याभाव इति वक्तुयुक्तम्, यतो व्यापकानुपलब्धेस्तावत पक्षव्यापकत्वनिश्चयः प्रागेवोक्तः । विपक्षे बाधकप्रमाणसद्भावाद् अन्वयव्यतिरेकावपि तत्राऽवगम्येते, तत्कारणेषु हि कुम्भादिषु तदन्वय-व्यतिरेकानुविधानस्योपलब्धिस्तदनुपलब्धेबर्बाधकं प्रमाणम् । अथवा तत्कारणत्वं तदन्वय-व्यतिरेकानुविधानेन व्याप्तम् , तदभावे तत्कारणत्वाऽसम्भवात, तदभावेऽपि भवतस्तत्कारणत्वे सर्व सर्वस्य कार्य कारणं च स्यात, न क्वचित कार्यकारणभावव्यवस्था । अन्वय-व्यतिरेकानुविधानं हि कार्य-कारणभावव्यवस्थानिबन्धनम् , तदभावेऽपि कार्य-कारणभावं कल्पयतः किमन्यत्तव्यवस्थानिबन्धनं स्याद् इति ? अतोऽतिव्याप्तिपरिहारेण क्वचिदेव कार्य कारणभावव्यवस्थामिच्छता तदभावे कार्य-कारणभावो नाऽभ्युपगन्तव्य इत्यन्वय-व्यतिरेकानुविधानेन कार्यकारणभावो व्याप्तः, स यत्रोपलभ्यते तत्रान्वया व्यतिरेकानुविधानसंनिधापनेन तदभावं बाधत इत्यनुमानसिद्धो व्यतिरेकः, तत्सिद्धेश्चान्वयोऽपि सिद्धः ।
रूप धर्म विद्यमान हो वहाँ बुद्धिमत्कारणत्व का अभाव होता है, इत्यादि अन्वय-व्यतिरेक भी पूर्वोक्त रीति से सिद्ध होने से प्रमाणनिश्चित पक्षधर्माऽन्वय-व्यतिरेकरूप स्वसाध्य का अविसंवाद व्यापकानुपलब्धि प्रमाण में प्रसिद्ध है, जब कि कार्यत्व हेतु में वैसा नहीं है, अतः व्यापकानुपलब्धि अपने साध्य की सिद्धि में ठोस प्रमाण है किंतु बुद्धिमत्कारण का अनुमान ठोस प्रमाणरूप नहीं है, क्योंकि यहाँ अपने साध्य के साथ अविसंवाद का कार्यत्वहेतु में अभाव है यह पहले दिखाया है । [द्र०पृ० ४३७-४]
[ व्यापकानुपलब्धि में पक्षधर्मत्वादि का अभाव नहीं ] यह कहना उचित नहीं है कि-जिस व्यापकानुपलब्धि प्रमाण से आप अंतरादि में कर्ता का बाध सिद्ध करते हैं वह व्यापकानुपलब्धि पक्षधर्मत्व के निश्चय से और अन्वय-व्यतिरेकनिश्वय से शून्य है, अत एव स्वसाध्याऽव्यभिचारिता के निश्चय से भी शून्य होने से उसमें प्रामाण्य भी नहीं है, अत: उससे अंकूरादि में कर्ता का बाध नहीं हो सकता-यह इसलिये उचित नहीं है कि-यहाँ व्यापकानपलब्धि में पक्षव्यापकता का यानी पक्षधर्मता का निश्वय तो पहले दिखा चुके हैं [ पृ० ४८६ ] । तथा अन्वय-व्यतिरेक का निश्चय भी विपक्ष में बाधक प्रमाण से सिद्ध होता है, विपक्ष में बाधक प्रमाण इस प्रकार है-बुद्धिमत्कारणजन्य कुम्भादि विपक्ष हैं, उनमें ज्ञानादि के अन्वयव्यतिरेक के अनुविधान की अनुपलब्धि नहीं किन्तु उपलब्धि ही है । अतः अनुपलब्धिरूप हेतु विपक्ष में अवृत्ति ही है ।
[ व्यापकानुपलब्धि हेतु में साध्य के अन्वयादि की सिद्धि ] अथवा अन्वय-व्यतिरेकानुविधानानुपलब्धिरूप हेतु में अपने साध्यभूत तत्कारणत्वाभाव के अन्वय-व्यतिरेक इस प्रकार सिद्ध किये जा सकते हैं-जिस में (घटादि में) यत्कारणता (यज्जन्यता) होती है उसमें तत् (कुम्हार) के अन्वयव्यतिरेक का अनुविधान होता है यह नियम है । अतः तदन्वय व्यतिरेकानुविधान रूप व्यापक के न होने पर तत्कारणता रूप व्याप्य का भी सम्भव नहीं है। यदि आपको तदन्वय-व्यतिरेकानुविधान के अभाव में भी तत्कारणता मान्य होगी तब तो प्रत्येक वस्तु अन्य सकल वस्तु का कारण और कार्य बन जायेगी क्योंकि अब कार्य-कारणभाव के ऊपर अन्वय-व्यतिरेक का नियन्त्रण नहीं है । फलतः मर्यादित (नियत) कार्य-कारणभावव्यवस्था तूट जायेगी। कार्यकारणभाव की नियत व्यवस्था करने वाला तो अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण ही है, उसके विना कार्यकारणभाव की कल्पना कर लेने पर अन्य किस के आधार पर व्यवस्था होगी ? यदि सभी में सभी की
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