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________________ ४८८ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ व्यापकानुपलब्धिः । यच्च यत्कारणं तत्तस्यान्वयव्यतिरेको अनुविधत्ते यथा घटादयः कुलालस्य । न चोपलब्धिमत्कारणसंनिधाने प्रागनुपलब्धस्यांकुरादेरुपलम्भस्तदभावे चाऽपरकारणसाफल्येऽपि तस्यानुपलम्भ इत्यन्वय-व्यतिरेकानुविधानमंकुरादिकार्याणाम् । __अथांकुरादिकर्तु रुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वस्याऽभावाद न प्रत्यक्षेण सद्भावाऽभावप्रतीतिरिति नांकुरादेस्तदन्वय-व्यतिरेकानुविधानस्योपलब्धियुक्ता । ननु मा भूत् तदन्वय-व्यतिरेकानुविधानोपलब्धिः, व्यतिरेकानुविधानानुपलब्धिस्तु युक्ता, यथा रूप-पालोक-मनस्कारसाकल्येऽपि कदाचिद् विज्ञानकार्यानुपपत्त्या कारणान्तरस्यापि तत्र सामर्थ्यमवसीयते, यच्च तत्कारणान्तरं सा इन्द्रियशक्तिः, तदभावाद् रूपज्ञानं न संजातमित्यनुपलभ्यस्वभावस्यापि कारणस्य व्यतिरेकः कार्येणाऽनुविधीयमान उपलभ्यते, न चेहोपलब्धिमत्कारणस्य व्यतिरेको कुरादिकार्येणानुविधीयमान उपलभ्यते, बुद्धिमत्कारणव्यतिरिक्तपृथिव्यादिसामग्रीसकला (ग्रीसाकल्ये)ऽङकुरादेरवश्यं भावदर्शनात् । "इन्द्रियशक्तेरनित्यत्वाऽव्यापकत्वेन व्यतिरेकसम्भवात् तव्यतिरेकानुविधानस्योपलब्धियुक्ता, न बुद्धिमत्कारणव्यतिरेकानुविधानस्य, तस्य नित्यत्वव्यापकत्वेन व्यतिरेकानुविधानाभावादि"ति चेत् ? अस्तु नामैवम् , तथापीश्वरस्य ज्ञान-प्रयत्न-चिकीर्षासमवायोऽङ कुरादिकार्यकरणे व्यापारः, तस्य सर्वदा सर्वत्राऽभावात् तदनुविधानं स्यात् । सकल कारण होते हुए भी अंकुरादि की उपलब्धि न हो । इस प्रकार, अंकुरादि कार्य में बुद्धिमत्कारण के अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण नहीं है। [व्यतिरेकानुसरण की उपलब्धि की आवश्यकता ] यदि कहें-अंकूरादि का कर्ता उपलब्धिलक्षणप्राप्त न होने से प्रत्यक्ष से उसके अस्तित्व के अभाव की प्रतीति शक्य नहीं है अत एव अंकुरादि कार्य में उसके अन्वय-व्यतिरेक के अनुसरण की उपलब्धि न होने में कोई दोष नहीं है। तो यहाँ निवदेन है कि अन्वयव्यतिरेक दोनों के अनुसरण की उपलब्धि भले न हो किंतु व्यतिरेक के अनुसरण की उपलब्धि तो होनी ही चाहिये । उदा० रूप, प्रकाश, मनोयोग आदि सकल कारण के रहते हुए भी कभी विज्ञान की अनुत्पत्ति दिखती है, अत: वहीं अधिक एक कारण का सामर्थ्य मानना पडता है, जो यह अधिक कारण होगा वही इन्द्रियशक्तिरूप मे सिद्ध होता है । अत: इन्द्रिय के अभाव में जब रूप ज्ञान नहीं होता तब उपलब्धिलक्षणप्राप्त न होने पर भी इन्द्रियरूप कारण के व्यतिरेक का अनुसरण कार्य में उपलब्ध होता है । उसी तरह अंकुरादि में बुद्धिमत्कारण के व्यतिरेक का अनुसरण उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि बुद्धिमत्कारण के विरह में भी पृथ्वी आदि दृष्ट सकल कारणों को उपस्थिति में अंकुरादि की उत्पत्ति नियमत: दिखायो [ व्यापार के व्यतिरेकानुसरण की अनुपलब्धि ] यदि कहें-इन्द्रियशक्ति और ईश्वररूप बुद्धिमत्कारण में वैषम्य है, इन्द्रियशक्ति अनित्य और अव्यापक है जब कि ईश्वर तो नित्य एवं व्यापक है । अतः इन्द्रिय का व्यतिरेक सम्भव होने से रूपज्ञान में उसके व्यतिरेक का अनुसरण युक्तियुक्त है किंतु यहाँ ईश्वरात्मक बुद्धिमत्कारण के व्यतिरेक का अनुसरण उपलब्ध नहीं हो सकता क्योंकि वह नित्य और व्यापक है । तात्पर्य, वहाँ कर्ता की अनु. पलब्धि अभावमूलक नहीं है । तो यह भी ठीक नहीं है । कारण, ईश्वर को नित्य और व्यापक भले ही मानो, फिर भी ईश्वर का व्यापार तो उसमें ज्ञान-इच्छा और प्रयत्न का समवाय ही है, और यह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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