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________________ ४८६ सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १ यदपि 'कार्य शरीरेण विना करोतीति नः साध्यम्, तत् स्वशरीरगतं अन्यगतं वेति नानेन किंचित्' इति, तदप्यसारम्, शरीरव्यतिरेकेण कार्यकरणाऽदर्शनात्, स्वशरीरप्रवृत्तिस्वरूपेऽपि कार्ये तच्छरीरसम्बद्धस्यैव व्यापारात्, अतः “अचेतनः कथं भावस्तदिच्छामनुवर्तते" इति दूषणं व्यवस्थितमेव, अचेतनस्य शरीरादेः शरीराऽसम्बद्धेच्छामात्रानुवर्त्तनाऽदर्शनात् । तदसम्बद्धस्येच्छाया अप्यभावात् मुक्तस्येव कुतस्तदनुवर्तनमचेतनकार्येण ? अथाऽदृष्टापीच्छा शरीरस्य स्थाणोः परिकल्प्यते, किमिति भूरुहादिकं कार्यं कर्तृ विकलं दृष्टमपि न कल्प्यते ? एतेन 'ईश्वरस्यापि प्रयत्नसद्भावे न काचित् क्षतिः ' इति निरस्तम्, शरीराभावे मुक्तात्मन इव प्रयत्नाऽसम्भवात् । अपरशरीररहितस्वशरीरावयवप्रेरणप्रयत्नसद्भावोऽपि न शरीराभावे प्रयत्नसद्भावावेदकः, सर्वथा शरीररहितस्य तस्य क्वचिदप्यदर्शनात् ; दृष्टानुसारिण्यश्व कल्पना भवन्ति । ततः स्थावरेषु शरीराभावाद् न तत्कतु' रनुपलब्धिः किन्तु कर्तुरभावादिति कथं न तैः कार्यत्वादेर्हेतोर्व्यभिचार: ? [ शरीर के विरह में कार्योत्पादन का असम्भव ] यह जो आपने कहा था- हमारा तो इतना ही साध्य है कि जगत्कर्त्ता कार्य को शरीर के विना ही करता है, वह कार्य चाहे स्वशरीरगत हो या अन्यवस्तुगत इस से हमें कोई प्रयोजन नहीं है । यह तो असार है, शरीर के विना कार्य का उत्पादन किसी भी कर्त्ता में देखा नहीं जाता। अपने शरीर के प्रवर्तनरूप कार्य में भी अपने शरीर से सम्बद्ध कर्त्ता का ही व्यापार सम्भव है । इस लिये आपने ही पूर्वपक्षी के मुख से जो यह दूषणोल्लेख किया था - " अचेतन पदार्थ ( शरीर के विना ) ईश्वर की इच्छा का अनुवर्तन कैसे कर सकता है ?" यह दूषण वास्तविक ठहरा। कारण, आपने जो अचेतन भी शरीर इच्छा का अनुवर्तन करता है यह कहा था उसके परिहार में हम कहते हैं कि शरीर से असम्बद्ध कर्ता की इच्छा मात्र का अनुवर्तन तो अचेतन शरीर में भी नहीं दिखता है । सच बात यह है कि शरीर सम्बन्ध के विना किसी भी व्यक्ति में इच्छा नहीं हो सकती, तो फिर शरीररहित मुक्तात्मा का जैसे अचेतनकार्य अनुवर्त्तन नहीं करता वैसे शरीरविहीन ईश्वर का भी अचेतनकार्य अनुवर्त्तन कैसे करेगा ? यदि कहें कि अशरीरी में यद्यपि ईच्छा अदृष्ट है फिर भी हम ईश्वर में इच्छा की कल्पना करते हैंतो वृक्षादि कार्य में दृष्ट कर्तृ विरह को क्यों नहीं मानते हैं ? [ शरीर के विरह में प्रयत्न का असंभव ] आपका यह कथन भी अब निरस्त हो जाता है कि 'ईश्वर में प्रयत्न मान लेने में कोई हानि नहीं' । कारण, शरीर के विरह में मुक्तात्मा में जैसे प्रयत्न नहीं होता वैसे ईश्वर में भी नहीं हो सकता । अन्य शरीर के विना ही अपने शरीर के अंगो के संचालन में होनेवाले प्रयत्न को पकडकर आप ऐसा मत दिखाना कि शरीर के विना भी प्रयत्न होता है, क्योंकि सर्वथा शरीरशून्य व्यक्ति अपने शरीर का या परायी किसी भी वस्तु का संचालन नहीं कर सकता । [ अपने शरीर के अंगों का संचालन भी अपने शरीर से सम्बद्ध रह कर ही हम कर सकते हैं । ] अतः कोई भी कल्पना दृष्ट वस्तु के मुताबिक ही की जानी चाहिये । [ जैसी तैसी बेबुनियाद कल्पना का कोई अर्थ नहीं है । ] फलित यह हुआ कि स्थावरों में शरीर के अभाव से कर्त्ता उपलब्ध नहीं होता ऐसा नहीं है किन्तु कर्त्ता स्वयं न होने से ही उपलब्ध नहीं होता । अब आप ही कहिये कि स्थावरादि में कार्यत्वादिहेतु व्यभिचारी क्यों न कहा जाय ? ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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