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________________ ४८० सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ अथाऽदृश्यं तच्छरीरमतस्तत्र सदपि नोपलभ्यत इत्ययमदोषः । नन्वेवमपि 'अस्मिन् सति इदं स्थावरादिकं जातम्' इति प्रतिपत्तिर्माभूव , तथाऽन्य (ऽप्यन्य) कारणभावेऽपि यथातीन्द्रियस्येन्द्रियर याभावे रूपादिज्ञानं नोपजायते तथा पृथिव्यादिकारणसाकल्येऽपि कदाचित तच्छरीरविरहे तत्स्थावरादिकार्य नोपजायत इति व्यतिरेकात प्रतीतिः किं न स्यात् ? य (दा)द्यत्र तच्छरीरं नियमेन संनिहितमिति चा(?ना)यं दोषस्तहि युगपद्धाविषु त्रिलोकाधिकरणेषु भावेषु का वार्ता ? न ह्य कस्य मूर्तस्य सावयवस्य महेश्वरवपुषोऽपि युगपत्सकलव्याप्तिः सम्भवति । अमूर्तत्वे निरंशप्रसंगादाकाशमेव तच्छरीरम , तस्य तच्छरीरत्वेनाद्यायसिद्धत्वात । अथ यावन्ति (अ) क्रमभावीन्यङकुरादिकार्याणि तावन्ति तथाविधानि तच्छरीराणि कल्प्यन्ते तहि तच्छरीरैः सकलं जगदापूरितमिति नाङकुरादिकार्यरुत्पत्तव्यम् तदुत्पत्तिदेशाभावात् । नापि माहे. श्वरैः क्वचित्प्रवत्तितव्यम् कुतश्चिद्वा निवत्तितव्यम् तच्छरीराणां पादायभिघातभयात् । अपि च, तान्यपि कार्याणि, सावयवत्वात् कुम्भवत , ततस्तत्करणे तावन्त्येवाऽपराणि तस्य शरीराणि कल्पनीयानि, पुनस्तत्करणेऽपि नानवस्थातो मुक्तिः । तन्न शरीरव्यापारसहायोऽप्यसौ स्थवरादिकार्य करोतीति कल्पयितु युक्तम् , अनेकदोषप्रसंगात। [ईश्वर का शरीर अदृश्य होने की बात असंगत ] यदि कहें-उसके शरीर को भी अदृश्य ही मान लेने से अनुपलब्धिमूलक कोई दोष नहीं होगातो यहाँ भी, 'इसके होने पर यह स्थावरादि उत्पन्न हुए' ऐसा अन्वयबोध यद्यपि नही होगा, किन्तु व्यतिरेकबोध क्यों नहीं होगा? आशय यह है कि, जैसे नेत्रेन्द्रिय यद्यपि अतीन्द्रिय है फिर भी चाक्षुष प्रत्यक्ष के सभी कारण उपस्थित रहने पर भी नेत्रेन्द्रिय के अभाव में रूपादिज्ञान उत्पन्न नहीं होता ऐसा व्यतिरेक बोध होता है उसी प्रकार ईश्वर शरीर अदृश्य होने पर भी 'पृथ्वी आदि सर्व कारण ___स्थत रहने पर ईश्वरदेह के अभाव में यह स्थावगदि कार्य उत्पन्न नहीं हुआ' इस रीति से व्यति. रेक से उसका बोध क्यों नहीं होगा? यदि ऐसा कहें कि-'यहाँ उसका शरीर नियमतः ( अचूक ) संनिहित रहता है, अत: व्यतिरेक से उसका बोध नहीं हो पाता ।'-तब तो तीन लोक के अधिकरण में रहे हए समानकालभावि अन्य पदार्थ का जन्म कसे होगा? जब कि ईश्वरदेह तो केवल उक्त स्थावरादिकार्यों के देश में ही संनिहित है, सर्वत्र तो है नहीं । मूर्त, सावयव एवं एक ही ईश्वरदेह एक साथ सभी देशों में उपस्थित नहीं रह सकता। (मूर्त पदार्थ कभी व्यापक नहीं होता है। ) यदि उसके देह को अमूर्त मानेंगे तो सावयव नहीं किन्तु निरंश ही मानना होगा, तात्पर्य आकाश को ही उसके सर्व व्यापक देह के रूप में मानना पड़ेगा, किन्तु अब तक किसी ने भी यह सिद्ध नहीं कर दिखाया कि आकाश ईश्वर का शरीर है। [ ईश्वर के अनेक शरीर की कल्पना अयुक्त ] यदि कहें-'एक साथ होने वाले अंकूरादि जितने कार्य हैं, उत्पत्ति के लिये उसके उतने ही शरीर मान लेंगे । अत: भिन्न भिन्न देश में एक साथ सब कार्य उत्पन्न हो सकेगे।'-तो यह कल्पना मिथ्या है, क्योंकि विश्व के सभी देश में कुछ न कुछ कार्य तो पल पल उत्पन्न होते ही रहते हैं अत: प्रत्येक पल में सर्व देश में ईश्वर का एक एक शरीर मानना होगा, इस प्रकार सारा जगत् उसके शरीरों से ही आक्रान्त हो जाने से अंकुरादि कार्यों को उत्पन्न होने के लिये रिक्त स्थान न रहने से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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