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________________ ४७८ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ नचा (च) दृष्टस्य चेतनेष्वपि सकलजगदुपादानोपकरणसम्प्रदानाभिज्ञाता न सम्भवतीति तद्व्यतिरिक्तोऽपरो महेशस्तज्ज्ञः कल्पनीय इति वक्तुं युक्तम् , तज्ज्ञानवत्वेन तस्याऽप्यसिद्धः । न च सकलजगत्कर्तृत्वादेव तज्ज्ञत्वं तस्य सिद्धम् , इतरेतराश्रयदोषप्रसंगात् । तथाहि-सिद्धे सकलजगदुपादानाद्यभिज्ञत्वे सकलजगत्कर्तृत्वसिद्धिः, तत्सिद्धौ च तस्य तदभिज्ञत्वसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । अथ यद्यत् कार्य तत्तद् उपादानाद्यभिज्ञकर्तृ पूर्वक मुपलब्धं घटादिवत् , पृथिव्याद्यपि कार्यम् , तेन तदपि तदभिज्ञकर्तृ पूर्वकं युक्तमिति नेतरेतराश्रयदोषः । ननु घटादिकार्यकर्तुरपि कुलालादेर्यदपि ( ? यदि) सर्वथा घटाद्युपादानाद्यभिज्ञत्वं सिद्धं स्यात् तदा युज्येताप्येतद् वक्तुम , न च तस्यापि घटाधुपादानोपकरणादेः परिमाणावयवसंख्येयत्वाद्यनेकधर्मसाक्षात्करणज्ञानमस्ति, तत्त्वं सिद्धम् ( ? तन्मात्रसिद्धयर्थं कि )चिन्मात्रपरिज्ञानं तु चेतनत्वेऽदृष्टस्यापि तदाधारस्य वा सत्वस्य तददृष्ट निर्वत्तितफलोपभोक्तः प्रतिनियतशरीराधिष्ठायकस्य विद्यत इति व्यर्थ व्यतिरिक्तापरज्ञानवतो महेशस्य परिकल्पनम् । न चायमेकान्त: सर्व कार्य तदुपादानाद्यभिज्ञेनैव का निर्वर्त्यत इति, स्वापमदावस्थायां शरीराद्यवयवप्रेरणस्य कार्यस्य तदुपादानाभिज्ञानाऽभावेऽपि तत्कृतत्वेनोपलब्धः । उत्पन्न होने वाले कार्यों का साधारण कारण है, साधारण कारणों से होने वाला कार्य समान ही होना चाहिये किन्तु कार्यों में वैचित्र्य प्रसिद्ध है, अत. कार्यवैचित्र्य से विचित्र (असाधारण) कारण की भी कल्पना करनी पड़ेंगी, उस विचित्र कारण का ही नाम आपने 'अष्ट' किया है । अदृष्ट की स्थापना में जैसे कार्यवैचित्र्य बड़ा निमित्त है ऐसा ईश्वर की स्थापना में कोई भी निमित्त सम्भव नहीं है, क्योंकि ईश्वर को कारण न माने तो अमुक अर्थ नहीं घटेगा'-ऐसा कहीं दिखता नहीं है । यह नहीं कह सकते कि-[द्र० प्र० ३९१-४] 'चेतन कर्ता के विना कार्य का स्वरूप ही उपपन्न नहीं होता-क्योंकि बौद्धमत में दृष्ट चैतन्य को जगत् की विचित्रता के कर्तारूप में माना ही गया है। अत: दृष्ट चैतन्य से अतिरिक्त अन्य अदृष्ट ईश्वर चैतन्य की कल्पना का अब कोई निमित्त नहीं रहता। [ सकल उपादानादि के ज्ञातारूप में ईश्वर असिद्ध ] यदि यह कहा जाय कि-दृष्ट जो चेतनवर्ग है उसमें कोई भी एक व्यक्ति समुचे जगत् के उपादान कारण (परमाणु आदि), उपकरण, सम्प्रदानादि कारणों का अभिज्ञाता हो यह सम्भव न होने से हष्ट चेतनों से भिन्न महेश्वर की उपादानादिकारण के अभिज्ञाता के रूप में कल्पना करनी ही पडेगी ।-तो यह कहना शक्य नहीं है । कारण, सकल जगत् के अभिज्ञाता के रूप मैं ईश्वर भी सिद्ध नहीं है । यदि सकल जगत् का कर्ता होने से उसे सर्वज्ञ माना जाय तो अन्योन्याश्रय दोष प्रसंग होगादेखिये, सकल जगत् के उपादानादि कारणों की अभिज्ञता सिद्ध होने पर सकल जगत् का कर्तृत्व सिद्ध होगा, और इसकी सिद्धि होने पर उक्त अभिज्ञता सिद्ध होगी। अन्योन्याश्रय स्पष्ट ही है। यदि यह कहें कि "जो जो कार्य उपलब्ध होता है वह घटादि की तरह उपादानादिज्ञान वाले कर्ता से जन्य ही होता है, यह व्याप्ति है, पृथ्वी आदि भी कार्य ही है अत: वह भी तज्ज्ञ कर्ता से जन्य होना युक्तियुक्त हैं । इस प्रकार सकलजगत्कर्तृत्व और तदभिज्ञत्व दोनों की सिद्धि एक ही अनुमान से करने पर अन्योन्याश्रय नहीं होगा"-तो यह ठीक नहीं है। ऐसा कहना तो तभी यक्तियुक्त होता अगर, घटादि कार्य के कर्ता कुम्हार आदि में सम्पूर्णतया घटादि के उपादानादिकारणों की अभिज्ञता सिद्ध होती। अरे कुम्हार को भी घटादि के उपादान और उपकरणों का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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