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प्रथमखण्ड-का० १- ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः
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अथ तदनिवत्तितं तच्छरीरं तदाऽत्रापि वक्तव्यम् - किं तत् कार्यम् उत नित्यमिति ? यद्याद्यः पक्ष:, तदा तस्य कार्यत्वे सत्यपि न कर्तृ पूर्वकत्वम्, ततस्तेनैव कार्यत्वलक्षणो हेतुर्व्यभिचारी । अथ नित्यम्, तदा यथा तच्छरीरस्य शरीरत्वे सत्यपि नित्यत्वलक्षणः स्वभावातिक्रमोऽभ्युपगम्यते तथा भूरुहादेः कार्यत्वे सत्यव्य कर्तृ पूर्वकत्वमभ्युपगन्तव्यमिति पुनरपि तैर्हेतुर्व्यभिचारी प्रकृतः ।
पिशाचादेस्तु शरीरसम्बन्धरहितस्य कार्यकर्तृत्वं मुक्तात्मन इवानुपपन्नम् । अथास्त्येव तस्य शरीरसम्बन्ध:, किन्त्वदृश्य शरीरसम्बन्धाद सावदृश्यः कर्त्ताऽभ्युपगम्यते । ननु कुलालादेरपि शरीरसम्बन्ध एव दृश्यत्वं नापरम् स्वरूपेणात्मनोऽयत्वात्। श्रथ दृश्यशरीरसम्बन्धात् तस्य दृश्यत्वम्, ननु पिशाचादिशरीरस्य शरीरत्वे सत्यपि कथमदृश्यत्वम् ? 'अस्मदादिचक्षुर्व्यापारेण तस्याऽनुपलम्भादि' ति चेत् ? नतु यथा शरीरत्वे सत्यप्यस्मदादिशरीरविलक्षणं पिशाचादिलक्षणं शरीरमनुपलभ्यत्वेनाभ्युपगम्यते तथा घटादिविलक्षणं भूरुहादि कार्यत्वे सत्यप्यकर्तृ कत्वेन किं नाभ्युपगम्यते ? तथाऽभ्युपगमे च पुनरपि प्रकृतो हेतुर्व्यभिचारी । तदेवमसिद्धत्वाऽनैकान्तिकत्व - विरुद्धत्वदोषदुष्टत्वाद् नास्माद्धेतोः प्रस्तुतसाध्यसिद्धिः । तेन यदुक्तम्- 'पृथिव्यादिगतस्य कार्यत्वस्याऽप्रतिपत्तेर्न तस्मादीश्वरावगम' इति तद्युक्तमेवोक्तम् ।
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- इतना ही यहाँ कर्तृत्वप्रतिपादन का मूल है, अन्य शरीर का सम्बन्ध हो या न हो, किसी उपयोग का नहीं । (तात्पर्य यह है कि शरीर योग के विना स्वदेहावयवादि किसी का भी कोई संचालन नहीं कर सकता, वह संचालन उसी शरीर से चाहे करे या अन्य शरीर से यह कोई महत्त्व की बात नहीं है, निष्कर्ष:- कर्तृत्व के लिये शरीर योग चाहिये ) अत: वृक्षादि कार्य उत्पादन में किसी कर्ता का व्यापार मानना हो तो शरीरसंबद्ध ही उसे मानना होगा ईश्वर में यह देहसंबन्ध भी यदि ईश्वरकृत ही मानेंगे तो उसके उत्पादन में देहसम्बन्धशून्य ईश्वर उपरोक्त रीति से समर्थ न बन सकने से अन्य देहसम्बन्ध मानना पड़ेगा, वरना देहसम्बन्ध के विना वह देहसम्बन्धरूप कार्य को भी कैसे कर सकेगा ? यदि प्रथम देहसम्बन्ध के लिये दूसरा देह सम्बन्ध मानेंगे तो दूसरे के लिये तीसरा, तीसरे के चौथा...... इस प्रकार अपने शरीर के निर्माणकार्य में ही ईश्वर का व्यापार क्षीण हो जायेगा तो वृक्षादि कार्य का निर्माण कब और कैसे करेगा ?
यदि यह कहें कि ईश्वरदेह ईश्वर निर्मित नहीं है तो यहाँ दो प्रश्न का उत्तर दीजिये - वह कार्य ( जन्य ) है ? या नित्य है ? यदि प्रथम पक्ष माना जाय तो ईश्वरदेह कार्यत्मक होने पर भी मूक नहीं है यह फलित होने से ईश्वरदेह में ही आपका कार्यत्वरूप हेतु साध्यद्रोही हुआ । यदि उसके शरीर को नित्य मानेंगे तो यह निवेदन है कि जैसे उसके देह में शरीरत्व होने पर भी अनित्यत्वस्वभाव का अतिक्रमण करने वाला नित्यत्व आप मानते है वैसे ही वृक्षादि में कार्यत्व रहने पर भी अकर्तृ मूलकता मान लेनी चाहिये, अर्थात् कार्यत्व हेतु फिर से एक बार वृक्षादि में साध्यद्रोही सिद्ध होगा ।
[ शरीरसम्बन्ध के विना कर्तृत्व की अनुपपत्ति ]
वृक्षादि भंग की जो बात कही है वहाँ पिशाचादि में भी शरीर के सम्बन्ध विना मुक्तात्मा को तरह कार्यकर्तृत्व नहीं घट सकता । ( शरीर के अभाव में मुक्तात्मा किसी भी कार्य का कर्त्ता नहीं होता ) । यदि कहें कि उसको भी देहसम्बन्ध है ही, किन्तु वह शरीरसम्बन्ध अदृश्य होने से अदृश्य
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