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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकतृ त्वे उ०समवाय० ४६१ तथाहि-कश्चित् केनचित् 'संयुक्ते द्रव्ये प्राहर' इत्युक्तो ययोरेव द्रव्ययोः संयोगमुपलभते ते एवाहरति न द्रव्यमात्रम् । कि च, दूरतरवत्तिनः पुंसः सान्तरेऽपि वने निरन्तररूपावसायिनी बुद्धिरुदयमासादयति, सेयं मिथ्याबुद्धिः मुख्यपदार्थानुभवमन्तरेण न क्वचिदुपजायते। न झननुभूतगोदर्शनस्य गवये 'गौः' इति विभ्रमो भवति । तस्मादवश्यं संयोगो मुख्योऽभ्युपगन्तव्यः । तथा, 'न चैत्रः कुण्डली' इत्यनेन प्रतिषेषवाक्येन न कुण्डलं प्रतिषिध्यते, नापि चैत्रः, तयोरन्यत्र देशादौ सत्त्वात् । तस्मात् चैत्रस्य कुण्डलसंयोगः प्रतिषिध्यते । तथा, 'चैत्र: कुण्डली' इत्यनेनापि विधिवाक्येन न चैत्रकुण्डलयो. रन्यतरविधानम् , तयोः सिद्धस्वात् , पारिशेष्यात संयोगविधानम् । तस्मावस्त्येव संयोगः।" [ द्रष्टव्यं न्यायवात्तिके २/१/३३ सूत्रे पृ० २१९-२२२ ] ___-तन्निरस्तं द्रष्टव्यम् , संयुक्तद्रव्यस्वरूपावभासव्यतिरेकेणापरस्य संयोगस्य प्रत्यक्ष निर्विकल्पे सविकल्पके वाऽप्रतिभासस्य प्रतिपादितत्वात् ।। न च संयुक्तप्रत्ययान्यथानुपपत्त्या संयोगकल्पनोपपन्ना, निरन्तरावस्थयोरेव भावयोः संयुक्तप्रत्ययहेतुत्वाद । यावच्च तस्यामवस्थायां संयोगजनकत्वेन संयुक्तप्रत्ययविषयो ताविष्यते तावत् संयोगमन्तरेण संयुक्तप्रत्ययहेतुत्वेन तद्विषयो कि नेष्यते कि पारम्पर्येण ? न सान्तरे वने निरन्तरावभासिनी करते हैं, जैसे मिट्टीपिंडादि सामग्री घटादि के उत्पादन में कुम्हार आदि की अपेक्षा करते हैं। तो क्षेत्रादि जिस कारण की अपेक्षा करते हैं वही संयोग है यह सिद्ध हुआ। दूसरी बात, यह संयोग दो द्रव्य के विशेषणरूप से प्रतीत होता है अतः दो द्रव्य से वह अलग रूप में प्रत्यक्ष से सिद्ध ही है। जैसे देखिये-कोई किसी को कहता है 'भाई ! संयुक्त दो द्रव्य को ले आव !' तो वह आदमी जिन दो द्रव्य के संयोग को प्रत्यक्ष देखता है उन्हीं दो द्रव्य को ले आता है, नहीं कि केवल संयोगरहित द्रव्यमात्र । तीसरी बात, अरण्य से दूर रहे हए पुरुष को अरण्य में हर पेड के बीच अन्तर होने पर भी नैरन्तर्यस्पर्शी बुद्धि का उदय होता है। यह बुद्धि प्रमाणभूत नहीं है किन्तु भ्रमात्मक ही है। भ्रमबुद्धि मुख्यापदार्थ के पूर्वानुभव विना उत्पन्न नहीं होती। जिसने धेनुदर्शन का ही अनुभव नहीं किया है उसको अरण्य में गवय को देखने पर कभी भी 'गो' का विभ्रम नहीं होता। अतः संयोग रूप मुख्य पदार्थ को यहाँ अवश्य मानना होगा। तदुपरांत, 'चैत्र कुडलवाला नहीं है' इस निषेधप्रयोग से कुडल का अथवा चैत्र का निषेध कोई नहीं करता है क्योंकि वे दोनों अन्यत्र अपने स्थान में अवस्थित हैं, तब यही मानना होगा कि यहाँ कुडल और चैत्र के संयोग का ही निषेध किया जाता है । तदुपरांत 'चैत्र कुडलीवाला है' इस विधिवाक्य प्रयोग से न तो चैत्र का विधान किया जाता है, न कुडल का, दोनों में से किसी का भी नहीं, क्योंकि वे दोनों सिद्ध ही है, तब परिशेष से संयोग का विधान ही मानना होगा। निष्कर्ष:-सयोग अबाधित रूप से सिद्ध है। यह उद्योतकर का कथन भी पूर्वोक्त रीति से परास्त हो जाता है । पहले ही यह कह दिया है कि संयुक्त दो द्रव्य के स्वरूपावभास से अतिरिक्त कोई नया संयोग निर्विकल्पक या सविकल्पक प्रत्यक्ष में भासित नहीं होता। । उद्योतकर की संयोगसाधक युक्तियों का निरसन ) 'ये दो संयुक्त हैं'-ऐसी बुद्धि अन्यथा उपपन्न न होने से संयोग की कल्पना करना संगत नहीं है, क्योंकि संयुक्त की प्रतीति में निरन्तर अवस्थित भावद्वय ही हेतु हैं । निरन्तर अवस्थित दो द्रव्य से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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