________________
प्रथमखण्ड का ० १ - ईश्वरकतृत्वे उत्तरपक्षः
तदेवं सत्ता-समवाययोः परपरिकल्पितयोर सिद्धेः 'प्रागसतः कारणसमवायः सत्तासमवायो वा कार्यत्वम्' इति कार्यत्वस्याऽसिद्धत्वात् स्वरूपाऽसिद्धोऽपि कार्यत्वलक्षणो हेतुः ।
अथ स्यादेष दोषो यदि यथोक्तलक्षणं कार्यत्वं हेतुत्वेनोपन्यस्तं स्यात्, यावताऽभूत्वाभवनलक्षणं कार्यत्वं हेतुत्वेनोपन्यस्तं तेनाऽयमदोषः । नन्वेवमपि भू-भूधरादेः कथमेवंभूतं कार्यत्वं सिद्धम् ? arrer विप्रतिपत्तिविषयता तदानुमानतस्तेषु कार्यत्वं साध्यते । तच्चानुमानम् - भू-भूधरादयः कार्यम् रचनावत्त्वात् घटादिवत् इति कथं न तेषु कार्यत्वलक्षणो हेतुः सिद्धः ? असदेतत् यतोऽत्रापि प्रयोगे भू-भूधरादेरवयविनोऽसिद्धेराश्रयासिद्धः 'रचनावत्वात्' इति हेतु:, तदसिद्धत्वं च प्राक् प्रतिपादितम् ।
कि च किमिदं रचनावत्त्वम् ? यदि श्रवयवसंनिवेशो रचना तद्वत्त्वं च पृथिव्यादेस्तदुत्पाद्यत्वम् तदाऽवयवसंनिवेशस्य संयोगापरनाम्नोऽसिद्धत्वादसिद्धविशेषणो रचनावत्त्वादिति हेतुः । तथा, पृथिव्यादिषु संयोगजन्यत्वस्य विशेष्यस्याऽसिद्धत्वादसिद्ध विशेष्यश्च प्रकृतो हेतुः ।
४५९
फलत: अनेक व्यक्ति में व्यापक जाति की प्रत्यक्ष से सिद्धि न होने से उसके अनुमान के लिये लिंग की अथवा शाब्दबोध के लिये शब्द की प्रवृत्ति भी शक्य नहीं है, अत: लिंग और शब्द से भी जाति का ग्रहण शक्य नहीं । व्यक्तिओं में अनुविद्ध व्यक्तिभिन्न जाति का कैसे सम्भव ही नहीं है यह बात आगे भी उचित अवसर पर कही जायेगी अतः यहाँ उसको अभी जाने दो ।
[ कार्यत्व रचनावच से भी सिद्ध नहीं है ]
उपरोक्त रीति से नैयायिकों का कल्पित सत्ता और समवाय असिद्ध बन जाता है, अत: 'पहले जो असत् है उसका कारणों में समवाय अथवा उसमें सत्ता का समवाय यह कार्यत्व है' ऐसा कार्यत्व भी असिद्ध बन जाता है, अतः ईश्वरसिद्धि के लिए उपन्यस्त कार्यत्वरूपहेतु स्वरूपासिद्धि दोषग्रस्त होने से जगत्कर्तृत्व की सिद्धि दुष्कर है ।
नैयायिकः- यदि हम कारणसमवाय अथवा सत्तासमवाय रूप कार्यत्व को हेतु करे तब यह दोष हो सकता है, किन्तु जब हम 'अभूत्वाभवन' अर्थात् 'पहले न होने के बाद होना' यही कार्यत्व का लक्षण मान कर उसे हेतु करेंगे तब तो कोई असिद्धि दोष नहीं है ।
उत्तरपक्षी:- यहाँ प्रश्न है कि भूमि और पर्वतादि पक्ष में ऐसे कार्यत्व हेतु को कैसे सिद्ध
करोगे ?
नैयायिकः- यदि आप ऐसे कार्यत्व में असम्मति दिखायेंगे तो हम अनुमान से उसको सिद्ध कर बतायेंगे । यह रहा वह अनुमान: भूमि पर्वतादि कार्य हैं क्योंकि रचनावाले ( अवयवों की विशिष्ट रचनावाले ) हैं । इस अनुमान से कार्यत्वरूप हेतु भूमि - पर्वतादि में क्यों सिद्ध न होगा ?
उत्तरपक्षी:- आप की बात गलत है । कारण, इस अनुमान प्रयोग में एक तो भूमि पर्वतादि अवयवी सिद्ध न होने से 'रचनावस्त्व' जो हेतु है वह आश्रयासिद्धि दोष वाला है तथा आश्रय असिद्ध कैसे है यह पहले ही दिखाया है । [ पृ० ४१४-५ ]
'रचनावत्त्व' क्या है यह भी सोचना होगा । यदि अवयवसंनिवेश ही रचना है और तद्वत्ता का मतलब यह हो कि पृथ्वी आदि का उससे उत्पन्न होना, तो अवयवसंनिवेश जिस का अपरनाम संयोग है वह स्वयं असिद्ध होने से विशेषणांश रचना = अवयवसंनिवेश असिद्ध होने से रचनावत्त्व हेतु भी असिद्ध
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org