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प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर० उ०पक्षे जाति०
तत्परिगतमेव जातेः स्वरूपं प्रतिभाति न पूर्वव्यक्तिसंस्पतिया, तस्याः प्रत्यक्षगोचरातिक्रान्ततया तत्सम्बद्धस्यापि रूपस्य तदतिक्रान्तत्वात् । तत् कथं सन्निहिताऽसन्निहितव्यक्तिसम्बद्धजातिरूपावगमः ?
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अथ प्रत्यभिज्ञानादनेकव्यक्तिसम्बन्धित्वेन जातिः प्रतीयते । ननु केयं प्रत्यभिज्ञा ? यदि प्रत्यक्षम, कुतस्तदवसेया जातिरेकानेकव्यक्तिव्यापिनी प्रत्यक्षा ? अथ नयनव्यापारानन्तरं समुपजायमाना प्रत्यभिज्ञा कथं न प्रत्यक्षम् निर्विकल्पकस्याप्यक्षान्वय-व्यतिरेकानुविधानात् प्रत्यक्षत्वं तदत्रापि तुल्यम् ? असदेतद्, यदि अक्षजा प्रत्यभिज्ञा, तथा सती प्रथमव्यक्तिदर्शनकाले एव समस्तव्यक्तिसम्बद्धजातिरूपपरिच्छेदोsस्तु | अथ तदा स्मृतिसहकारिविरहान्न तत्त्वावगतिः, यदा तु द्वितीयव्यक्तिदर्शनं तदा पूर्वदर्शनाहितसंस्कारप्रबोधसमुपजातस्मृतिसहितमिन्द्रियं तत्त्वदर्शनं जनयति । तदप्यसत्यतः स्मरणसचिवमपि लोचनं पुरःसंनिहितायामेव व्यक्तौ तत्स्थजातौ च प्रतिपत्त जनयितुमीशम्, न पूर्वव्यक्त, असंनिधानात् । तन्न तत्स्थितां जाति दर्शनं परिदृश्यमाने व्यक्त्यन्तरे संधत्ते ।
उसका जैसा स्वरूप भासित होता हो, उसीको उसका स्वरूप मानना युक्तियुक्त है, क्योंकि जो स्वरूप दर्शन में नहीं भासता उसकी सम्भावना ही नहीं की जा सकती । यदि उस अदृश्य रूप की भी सम्भावना की जाय तो दृश्यस्वभाव वाली वस्तु से उसको भिन्न ही मानना होगा, यदि उनमें दृश्यत्व और अदृश्यत्व का विरोध होने पर भी एकत्व मानेगे तो सर्वत्र भेद का विलोप हो जाने से जगत् में वैविध्य न रह कर केवल एकरूपता ही प्रसक्त होगी । अन्य व्यक्ति से सम्बद्ध माने जाने वाली जाति का स्वरूप दर्शन की विषयमर्यादा से बाह्य होने से असत् है क्योंकि उसका प्रतिभास नहीं हो सकता । यदि उसका प्रतिभास होने का मानेंगे तो उससे सम्बद्ध अन्य अनेक दूरवर्ती व्यक्तियों का भी प्रतिभास होने लग जायेगा । फलतः एक सत्व जाति के द्वारा सारे जगत् का प्रतिभास प्रसक्त होगा ।
[ पूर्वोत्तरव्यक्ति में जाति की साधारणता अनुभववाह्य ]
कदाचित् नैयायिकों का मत ऐसा हो कि निकट की व्यक्ति के दर्शन काल में अन्यव्यक्तिसम्बन्धि
रूप में जाति का भान नहीं होता, किन्तु पीछे जब अन्य व्यक्ति को देखते हैं तब उसके दर्शनकाल
तद्वृत्तित्वरूप से जाति भी दिखाई देती है, इस प्रकार वह जाति पूर्वदृष्ट और पश्चाद् दृष्ट व्यक्तिद्वय का साधारण तत्त्व है ऐसा बोध पीछे से हो जाता है । जब इस प्रकार जाति में पीछे से भिन्न भिन्न व्यक्ति में अन्वय का दर्शन सम्भव है तो जाति अनेक व्यक्ति में व्यापक है ऐसा ज्ञान क्यों नहीं होगा ?
किन्तु ऐसा मत ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यव्यक्ति के दर्शनकाल में भी तद्वृत्तित्वरूप से ही जाति का स्वरूप उपलब्ध होता है, 'पूर्वयक्त में भी यह जाति आश्रित है' ऐसा वोध उस वक्त शक्य नहीं है, क्योंकि पूर्वव्यक्ति उस वक्त प्रत्यक्ष को विषयमर्यादा से बाहर है, अतः तदाश्रित जाति भी प्रत्यक्षविषय मर्यादा से बाहर हो है । तो अब प्रश्न खड़ा रहता है कि जाति का स्वरूप निकटवर्ती एवं दूरवर्ती व्यक्तिओं में एक साथ आश्रित है यह कैसे जाना जाय ?
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[ प्रत्यभिज्ञा से अनेकव्यक्तिवृत्तित्व का बोध अशक्य ]
नैयायिकः- जाति अनेकव्यक्तिओं में सम्बद्ध है ऐसी प्रतीति प्रत्यभिज्ञा से हो सकती है । उत्तरपक्षी:- प्रत्यभिज्ञा क्या है ? यदि प्रत्यक्षप्रमाणात्मक उसे मानते हैं तो उससे अनेक व्यक्ति में व्यापक प्रत्यक्ष जाति का अवबोध कैसे होगा ? अनेक व्यक्ति का प्रत्यक्ष तो होता नहीं ।
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