SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्मतिप्रकरण - काण्ड १ गुणों के साथ हेतु का सम्बन्ध अभावस्वरूप नहीं है। इन तीनों से अतिरिक्त किसी हेतु को आप स्वीकार नहीं करते और आपके मतानुसार प्रत्यक्ष प्रमाण और अनुमान प्रमाण से अतिरिक्त कोई भी प्रमाण नहीं है । अतः इन्द्रियगत गुणों का ज्ञान नहीं हो सकता। जो किसी भी देश-काल में प्रमाण द्वारा प्रतीत नहीं होता है उसका सत् रूप से व्यवहार नहीं होता है, जैसे खरगोश का सींग | आपके द्वारा स्वीकृत इन्द्रियगत गुण प्रमाण के द्वारा किसी देश काल में प्रतीत नहीं होते इसलिये ज्ञान के उत्पादक कारणों से भिन्न गुण आदि सामग्री प्रामाण्य की उत्पादक है यह कैसे माना जाय ? १२ [ यथार्थोपलब्धि कार्य से गुणों की सिद्धि अशक्य ] यदि आप कहें - ' अर्थ की यथार्थ प्रतीति इन्द्रियगत गुणों का कार्य है, इस कार्य से इन्द्रियगत गुणों का अनुमान होता है' - तो यह भी युक्त नहीं, क्योंकि यहां प्रश्न होगा कि प्रतीति जो कार्य है वह यथार्थ होती है वा अपथार्थ ? यथार्थ और अयथार्थ भाव को छोड़कर प्रतीति का अन्य कोई सामान्य स्वरूप प्रसिद्ध नहीं है । यदि प्रतीति का यथार्थ भाव और अयथार्थभाव के अलावा अन्य कोई सामान्यस्वरूप निश्चित हो तब कार्य का यथार्थ भावरूप विशेषस्वरूप को उत्पन्न होने के लिये पूर्ववर्ती विज्ञान सामान्य के कारणों के समूहमात्र से उत्पन्न न होने के कारण, इन्द्रियगत गुण नामक अन्य कारण की अपेक्षा होती और तभी यथार्थभाव की अन्यथा अनुपपत्ति से उसका अनुमान भी हो सकता परन्तु सामान्यतः यथार्थ भाव को छोड़कर प्रतीति यानी विज्ञान का अन्य कोई स्वरूप है ही नहीं, इसलिए अपने उत्पादक कारणों से प्रतीति जब भी होती है तब यथार्थ ही होती है । हाँ, अगर दोषात्मक विशेष कारण आ जाय तत्र प्रतीति अयथार्थ होगी । इसलिए दोषात्मक विशेष कारण के अभाव में अपने उत्पादक कारणों से यथार्थ प्रतीति ही उत्पन्न होने की वजह से यथार्थ उपलब्धि स्वरूप कार्यहेतु से ज्ञानोत्पादक कारणों के समूह की अनुमिति हो सकती है । इस दशा में उत्पादक कारणसमूह से अतिरिक्त गुणों की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती । प्रतोतिस्वरूप कार्य का अयथार्थत्व तो विशेष धर्म है । इसलिए वह पूर्ववर्ती कारणों के समूह से नहीं उत्पन्न हो सकता, अतः इस अयर्थोपलब्धिरूप कार्यहेतु विशेष मे दोषादि अन्य कारण का अनुमान हो सकता । यही कारण है-प्रतीति की अयथार्थता ज्ञान के सामान्य कारणों से नहीं उत्पन्न होती, किन्तु विशेष कारण की अपेक्षा रखती है । अतः अयथार्थ उपलब्धि अपनी उत्पत्ति के लिए सामान्य कारणों से अतिरिक्त दोषादि सामग्री की अपेक्षा रखती है । अतः इससे अयथार्थ उपलब्धि स्थल में दोषादि का अनुमान होता है । इसलिए अप्रमाण्य को परतः अर्थात् पर की अपेक्षा से उत्पन्न होने का कहा जाता है । कारण अप्रामाप्य उत्पत्ति में दोषापेक्ष है । [ दोषसिद्धि की समानयुक्ति से गुणसिद्धि का असंभव ] यदि आप कहें- 'अप्रामाण्य में कारणभूत दोषादि के समान प्रामाण्य में इन्द्रियों का निर्मलआदि गुण अपेक्षित हैं। उसके द्वारा ज्ञान का यथार्थभाव उत्पन्न होता है । यहां यह विवेक कर सकते हैं कि इन्द्रिय यह ज्ञान को उत्पत्ति में कारण हैं और उनका निर्मलभाव प्रामाण्य की उत्पत्ति में कारण है । अतः अप्रामाण्य के समान प्रामाण्य को भी परत: अर्थात् 'गुण' से उत्पन्न होने वाला मानना चाहिये - ता यह कथन युक्त नहीं । इन्द्रियों का निर्मलभावस्वरूप गुण तो इन्द्रियों का स्वरूप ही है किन्तु किसी उपाधि से उत्पन्न होने वाला नहीं । जब निर्मलभाव इन्द्रिय का गुण हैऐसा व्यवहार करते हैं तब यह व्यवहार दोषाभाव को लेकर होता है । अर्थात् वहां दोषाभाव ही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy