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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ प्रतिषिध्यते इति भवतु सूक्तम् , तथापि तनिषेधसामर्थ्याद यदि जीवच्छरोरे सात्मकत्वं न स्यात् न तहि तत्र तनिषेधः-यदा हि नैरात्म्पनिषेधो न सात्मकः किन्तु यथात्मनोऽभावो नैरात्म्यं तथाऽस्याऽभावोऽपि तुच्छरूपः प्रात्मनोऽन्यत्वाद् भंग्यन्तरेण नैरात्म्यमेव, पुनस्तनिषेद्धव्यम् , पुनरपि तनिषेधः तुच्छरूपो नैरात्म्पमित्यपरस्तनिषेधो मृग्यः, तथा च सति अनवस्थानान्न नैरात्म्यनिषेधः । कि च यदि नाम घटादौ नैरात्म्यमुपलब्ध किमित्यन्यत्र निषिध्यते ? इतरथा देवदत्त पाण्डित्यमुपलब्धं यज्ञदत्तादौ निषिध्येत । 'तत्र प्राणादिमत्त्वदर्शनादिति चेद, युक्तमेतद यदि प्राणादिमत्त्वं नैरात्म्यविरुद्धं स्यादग्निरिव शीतविरुद्धः, न चैवम् , अन्यथा सर्वमशेषविरुद्धं भवेत् । "प्राणादिमत्वेन स्वाभावो नैरात्म्यव्यापको विरुद्धः, ततः प्राणादिमत्त्वभावात् तदभावो निवर्तते, वह्निभावादिव शीतम, स च निवर्तमानः स्वव्याप्यं नैरालयमादाय निवर्तते यथा धमाभाव: पावकाभावमिति ।" दत्तमत्रोत्तरम्-यदि नैरात्म्याभावः सात्मको न भवेत् , तदवस्थं नैरात्म्यमिति । [अन्यमत में नेरात्म्य के निषेध की अनुपपत्ति] दूसरे विद्वान् कहते हैं-'अन्य स्थान में देखे गये धर्म का किसी एक धर्मि में विधान या निषेध किया जाता है'- इस उक्ति के अनुसार मात्र घटादि में अप्राणादिमत्व के साथ व्याप्तिवाला नैरात्म्य देखा जाता है तो जीवंत देह में अप्राणादिमत्त्व के अभाव से नैरात्म्य का ही निषेध करते हैं, सात्मकत्व का विधान नहीं करते हैं, क्योंकि [ आत्मा दृष्टिअगोचर होने से ] सात्मकत्व अन्य स्थान में दृष्टिगोचर नहीं है। ___ व्याख्याकार कहते हैं कि इन लोगों ने 'घटादि में दृष्ट नैरात्म्य का देह में प्रतिषेध करते हैं' यह तो ठीक ही कहा है, फिर भी नैरात्म्य के निषेध के बल से जीवंत देह में यदि सात्मकत्व को नहीं मानेंगे तो वहां नैरात्म्य का निषेध ही संगत नहीं होगा। क्योंकि जब आप नैरात्म्य के निषेध को सात्मक नहीं मानते है, किन्तु आत्मा का अभाव जैसे तुच्छ होता है वैसे नैरात्म्य का अभाव भी तुच्छ ही मानते है तब तो प्रकारान्तर से यह नैरात्म्य का निषेध नैरात्म्यस्वरूप ही फलित हुआ क्योंकि आत्मा से तो नैरात्म्य का अभाव भी अन्य ही है। अत: फिर से आपको एक बार जीवंत देह में अप्राणादिमत्त्व के अभाव से उस (नैरात्म्यनिषेधस्वरूप ) नैरात्म्य का निषेध करना पड़ेगा। वह निषेध भी तुच्छस्वरूप होने से नैरात्म्यरूप होगा तो उस का फिर से नया निषेध ढूंढना पड़ेगा। इस प्रकार निषेध का अन्त ही नहीं आयेगा । फलत: नैरात्म्य का निषेध अशक्य बन जायेगा। [रात्म्य का अभाव को सात्मकत्वरूप ही है ] यह भी एक प्रश्न है कि घटादि में नैरात्म्य यदि उपलब्ध हआ तो जीवंत देह में उसके निषेध की क्या जरूर ? यदि वैसे निषेध को मानेंगे तो देवदत्त में पांडित्य उपलब्ध होगा और यज्ञदत्त में उसका निषेध किया जा सकेगा। यदि कहें कि जीवंत देह में प्राणादि का दर्शन होता है अत: नैरात्म्य का निषेध करते हैं तो यह तभी युक्त होगा यदि प्राणादि नैरात्म्य का विरोधी हो, जैसे कि अग्नि शीत का विरोधी होता है। किन्तु वहाँ विरोध तो है नहीं, फिर भी यदि मानेंगे तो सब सभी का विरुद्ध बन जायेगा। * किन्तु शब्द का अन्वय 'नैरात्म्यमेव' इसके साथ लगाना है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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