________________
४४२
सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १
सत्तासमवाये खरशृङ्गादेरपि सम्भवेद् अविशेषात् । 'प्राग्' इति च विशेषणं शशशृङ्गादिव्यवच्छेदार्थ परेणोक्तम्, सत्तासम्बन्धसमये च तन्वादेः स्वरूपसत्त्वाभावे कस्ततो विशेषः ?
अयमस्ति विशेष:- कूर्म रोमादिकमत्यन्ताऽसत्, इतरत् पुनः स्वयं न सत्, नाऽप्यसत् अत एव सत्तासम्बन्धात् तदेव 'सत्' इत्युच्यत इति तदेतज्जडात्मनो भवतः कोऽन्यो भाषते ! तथाहि - 'न सत्' इति वचनात् तस्य सत्तासम्बन्धात् प्रागभाव उक्तः सत्प्रतिषेधलक्षणत्वादस्य । 'नाप्यसत्' इत्यभिधानात् भाव, असत्त्वनिषेधरूपत्वाद् भावस्य रूपान्तराभावात् । तथैव वैयाकरणानां न्याय: - 'दौ प्रतिषेधौ प्रकृतमर्थं गमयतः' इति । कथमन्यथा 'नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरम्, प्राणादिमत्त्वात्' इत्यत्र नैरास्म्यनिषेधः सात्मकः सिध्येत् ?
[ देहादि को सत् मानने में अन्योन्याश्रय ]
कार्य देहेन्द्रियादि को असत् मानने पर आपत्ति आती है इसलिये यदि वन्ध्यापुत्रादि असत् को छोड कर देहादि को सत् मान लिये जाय तो भी यह प्रश्न होगा कि क्यों वन्ध्यापुत्र सत् नहीं है और देहादि ही सत् हैं ? इसके उत्तर में यह कहें कि कारणों में देहादि का समवाय है अतः देहादि सत् हैं तो यहाँ फिर से प्रश्न होगा कि कारण समवाय देहादि का ही क्यों है, वन्ध्यापुत्रादि का क्यों नहीं ? इसके उत्तर में यदि कहेंगे कि देहादि सत् है इसीलिये उनका ही कारणों में समवाय होता है तो यहाँ अन्योन्याश्रय दोष लगेगा - कारणसमवाय से देहादि का सत्त्व और सत्त्व से कारणसमवाय ।
[ प्राक् असत् वस्तु सत्तासमवाय से सत नहीं हो सकती ]
B यदि कहें कि प्राक् काल में असत् होने पर भी सत्ता के समवाय से देहादि ही सत् होते हैंतो प्राक् काल में यानी किसके प्राक् काल में ? 'सत्तासमवाय के प्राक् काल में ऐसा कहेंगे तो, यह सोचना होगा कि सत्तासमवाय होने पर पूर्वकालवत् उस काल में देहादि यदि स्वरूपसत्त्व से विधुर होंगे तब तो पूर्वोत्तर उभय काल असत् होने से 'प्राक्' विशेषण निरर्थक है- इत्यादि जो पहले कारणसमवाय के विकल्प में दूषण दिये हैं वे सब यहाँ भी कहे जा सकते हैं । [ पृ० ४३६ ] फलित यह हुआ कि असत् का सत्तासमवाय होता है, अतः खरसींग का भी सत्तासमवाय सम्भवारूढ हो जायेगा क्योंकि देहादि असत्-खरसींग असत् इन दोनों में कोई विशेषता तो है नहीं। बात यह है कि 'प्राग्' यह विशेषण तो शशसींगादि से देहादि का व्यवच्छेद करने हेतु नैयायिक लगाते हैं, किन्तु सत्ता के सम्बन्धकाल में भी यदि देहादि में स्वरूपतः सत्त्व नहीं है तो खरशृङ्ग और उसमें विशेषता क्या हुयी ?
[ न सत् न असत् कहना परस्परव्याहत है ]
नैयायिकः - विशेषता यह है कुर्मरोम (केंचुए के रोंगटे ) अत्यन्त असत् होते हैं, देहादि अपने आप न तो सत् होते हैं और न असत् होते हैं, इसीलिये सत्ता के सम्बन्ध से देहादि 'सत्' कहे जाते हैं । उत्तरपक्षी:- आपके जैसे जडात्मा को छोड़कर कौन दूसरा ऐसा कहेगा ? जब 'न सत्' ऐसा कहा तो सत्तासम्बन्ध के पहले उसके अभाव का प्रतिपादन हुआ, क्योंकि इसमें सत् का आप प्रतिषेध करते हैं । 'नाऽपि असत्' इस कथन से भाव का विधान हुआ, क्योंकि भाव असत्व के निषेधरूप होता है । तीसरी कोई राशि ही नहीं है । व्याकरणवेत्ताओं में भी यह न्याय प्रचलित है कि 'दो निषेध
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org