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________________ ४४० सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ ननु तत्समवायसमये प्रागिव स्वरूपसत्ववैधुर्ये 'प्राक्' इति विशेषणमनर्थकम् , सति सम्भवे व्यभिचारे च विशेषणमुपादीयमानमर्थवद् भवति अत्र तु व्यभिचार एव, न सम्भवः । तथाहि-यदि कारणसमवायसमये स्वरूपेण सद भवति तन्वादि, तदा तत्काल इव तस्य प्रागपि सत्त्वे कार्यत्वं न स्यादिति विशेषणमुपादीयते 'प्रागसतः' इति । यदा पुनः प्रागिव कारणसमवायवेलायामपि स्वरूपसत्त्वविकलता तदा 'प्राक्' इति विशेषणं न कचिदर्थं पुष्णाति, 'असतः' इत्येवास्तु। __A न चाऽसतः कारणसमवायोऽपि युक्त शशविषाणदेरपि तत्प्रसंगात । तस्य कारणविरहान्न तत्प्रसंग इति चेत ? कुत एतत् ? असत्वात् , तनुकरणादेरपि तद्वदसत्त्वे कि कृतोऽयं विभागः-अस्य कारणमस्ति न शशशङ्गादेरिति ? तन्वादेः कारणमुपलभ्यते नेतरस्येत्यपि नोत्तरम् , यत काय-कारणयोरुपलम्भे सत्येतत् स्यात् 'इदमस्य कारणं कार्य चेदमस्य' इति । न च परस्य तदुपलम्भ: प्रत्यक्षतः, उपलम्भकारणमुपलम्भविषय इति नैयायिकानां मतम्-'अर्थवत् प्रमाणम्' [ वा. भा. प्रारम्भे ] इत्यत्र भाष्ये प्रमातृ-प्रमेयाभ्यामर्थान्तरमध्यपदेश्याऽव्यभिचारिव्यवसायात्मकज्ञाने कत्तव्येऽर्थः सहकारी विद्यते यस्य तद् अर्थवत् प्रमाणम् इति व्याख्यानात्। कार्यत्व हेतु की समालोचना का आरम्भ ] पक्ष मीमांसा और साध्यमीमांसा के बाद अब कार्यत्व हेतु की परीक्षा की जाती है-'कार्यत्वात्' यह हेतु असिद्ध है । जैसे देखिये देहादि में कार्यत्व क्या है ? जो 'पहले' असत् था उसका अपने कारणों में समवाय अथवा उसमें सत्ता का समवाय-इसे यदि कार्यत्व कहा जाय तो सर्वप्रथम यही प्रश्न है कि 'पहले' यानी किसके पहले ? कारणसमवाय के पहले ऐसा यदि कहते हैं तो 'पहले' यह विशेषण व्यर्थ हो जायेगा क्योंकि कारणसमवाय के पहले वस्तु जैसे स्वरूपसत्त्व से शून्य है वैसे उस के बाद भी शून्य है तो 'पहले' ऐसा कहने का क्या हेतु ? विशेषण का प्रयोग तभी सार्थक होता है जब वह संभवित और व्यभिचारी भी हो। जैसे 'नील कमल' प्रयोग में नील विशेषण कमल में सम्भवित भी है और श्वेतादि कमल में व्यभिचारी भी है। ] यहाँ तो जैसे पहले असत् है वैसे ही पीछे भी असत् ही है। जैसे देखिये-कारणसमवाय काल में यदि देहादिकार्य स्वरूप से सत् होते हो और उस काल के जैसे पूर्वकाल में भी यदि वैसा सत्त्व रहता हो तब तो कार्यत्व न घट सकने से आप 'पहले असत्' ऐसा प्रयोग करते हो । किन्तु कारणसमवाय काल में भी यदि कार्य स्वरूप सत्त्व से विधुर ही रहता हो तब 'प्राक =पहले' यह विशेषण किसो विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं कर सकता । अतः 'प्राक असत = पहले असत' ऐसा कहने के बजाय 'असत्' इतना ही कहना चाहिये। [ कारणों में असद् वस्तु का समवाय सम्भव नहीं ] A यह भी देखिये कि जो असत् है उसका कारणों में समवाय होना अयुक्त है, क्योंकि इस पक्ष में शशसींगादि का भी कारणों में समवाय हो जाने का अतिप्रसंग है। यदि कहें कि-असत् शससोंग का कोई कारण नहीं है अतः प्रसंग नहीं है । तो यहाँ प्रश्न होगा कि उसके कारण वयों नहीं है ? यदि असत् होने से उसके कारण न होने का कहा जाय तो देहेन्द्रियादि भी शशसींगवत् असत् ही तो हैं तो यह विभाग कैसे किया जा सकेगा कि 'देहादि के कारण हैं और शससींगादि के नहीं हैं ?' 'देहादि के कारण का उपलम्भ होता है, शशसींग के कारणों का नहीं होता' ऐसा उत्तर ठीक नहीं है, क्योंकि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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