________________
४३८
सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१
चोद्यम् । किंच, यदीशबुद्धिः समवाय्यादिकारणनिरपेक्षवोत्पत्तिमासादयति तहि मुक्तानामप्यानन्दादिकं शरीरादिनिमित्तकारणादिव्यतिरेकेणाप्युत्पत्स्यत इति न बुद्धि- सुखादिविकलं जडात्मस्वरूपं मुक्तिः स्यात् ।
bअथाऽक्षणिका तदबुद्धिः । नन्वेवमस्मदादिबुद्धिरत्यक्षणिका कि नाभ्युपगम्यन्ते ? अथ प्रत्यक्षादिप्रमाणविरोधाद नास्मदादिबुद्धिरक्षणिका, तहि तद्विरोधादेवाऽकृष्टोत्पत्तिषु स्थावरेषु कार्यत्वं बुद्धिमत्कारणपूर्वक नाभ्युपगन्तव्यम् । अथास्मयादिबुद्धेः क्षणिकत्वसाधकमनुमानमक्षणिकत्वाभ्युपगमबाधकं प्रवर्तते न पुनरकृष्टोत्पत्तिषु स्थावरेषु । कि पुनस्तदनुमानम् ? अथ 'क्षणिका बुद्धिः अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति विभुद्रव्यविशेषगुणत्वात् , शब्दवत्' इत्येतत् । ननु यथा अस्यानुमानस्यास्मदादिबुध्यक्षणिकत्वाभ्युपगमबाधकस्य सम्भवस्तथाऽकृष्टोत्पत्तिषु स्थावरेषु कर्तृ पूर्वकत्वाभ्युपगमबाधकस्य तस्य सम्भवः प्रतिपादयिष्यत इति नात्र वस्तुनि भवतीत्सुक्यमास्थेयम् । यथा च बुद्धिक्षणिकत्वानुमानस्यानेकदोषदुष्टत्वं तथा शब्दस्य पौद्गलिकत्वविचारणायां प्रतिपादयिष्यत इत्येतदप्यास्तां तावत् । असमवायी कारण आत्म-मन का संयोग और निमित्त कारण शरीरादि, के विना नयी बद्धि कैसे उत्पन्न होगी ? (यहाँ बुद्धि में आत्मा का अनुप्रवेश होने से आत्मा तो रहा ही नहीं, उसका मन के साथ संयोग भी न रहा और तब शरीर भी नहीं हो सकता, फिर अनित्य बुद्धि की उत्पत्ति कैसे होगी? ) यदि कहें कि-द्वितीयक्षण में बद्धि ही उत्पन्न नहीं होती है, तब तो चेतना के अभाव में तदनधिष्ठित अणु आदि की भूधरादिकार्योत्पादन में सक्रियता कैसे हो सकेगी? कुठार की तरह जो अचेतन एवं चेतन से अनधिष्ठत होते हैं उनसे किसी भी प्रवृत्ति का जन्म तो आप मानते नहीं है। इसका दुष्परिणाम यह योगा कि वृक्षादि-किसी भी कार्य की उत्पत्ति न होने से पूरा जगत् कार्यशून्य हो जायेगा।
पूर्वपक्षी:-समवायी आदि कारण के विना भी ईश्वरबुद्धि की उत्पत्ति को हम मान लेंगे, क्योंकि ईश्वरबुद्धि अपने लोगों की बुद्धि से विलक्षण है।
उत्तरपक्षी:-तब पर्वतादि कार्यों को भी घटादि कार्य से विलक्षण अर्थात् अकर्तपूर्वक ही क्यों नहीं मान लेते हैं ? ! यहो प्रश्न फिर से उठेगा। दूसरी बात यह है कि क्षणिक ईश्वरबुद्धि का यदि समवायी आदि कारण सामग्री से निरपेक्ष यानी उनके विना ही उत्पत्ति मानेंगे तो मुक्तात्माओं में सुख ज्ञानादि भी शरीरादिनिमित्तकारणों के विना ही उत्पन्न हो जायेंगे । अतः मुक्ति का स्वरूप बुद्धिसुखादि से शून्य जडमात्ररूप नहीं होगा।
[ ईश्वरबुद्धि में अक्षणिकत्व का विकल्प असंगत ] B यदि ईश्वरबुद्धि को अक्षणिक मानते हैं तो फिर अपने लोगों की बुद्धि को अक्षणिक क्यों नहीं मान लेते ?
पूर्वपक्षी:-अपने लोगों की बुद्धि को अक्षणिक मानने में प्रत्यक्षादि प्रमाणों का विरोध आता है अत: उसे अक्षणिक नहीं मानते हैं।
उत्तरपक्षी:-ऐसे तो कृषि के विना उत्पन्न स्थावरकार्यों में बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व मानने में भी प्रत्यक्षादि का विरोध है तो फिर उन कार्यों में उसको नहीं मानना चाहिये ।
पूर्वपक्षी:- अपने लोगों की बुद्धि में अक्षणिकत्व मानने जाय तो क्षणिकत्वसाधक अनुमान रूप बाधक बीच में आता है, कृषि के विना उत्पन्न स्थावरकार्यों में वह बीच में नहीं आता। वह
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org