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________________ ४३६ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ अथ अव्यतिरिक्ता तदात्मनस्तबुद्धिस्तथापि तदनुपपत्तिः, न हि तदेव तेनैव तद्वद् भवति । कि च, तदात्मनस्तबुद्धेरव्यतिरेके यदि तदात्मनि तबुद्धेरनुप्रवेशस्तदा बुद्धेरभावाद बुद्धिविकलो गगनादिवद जडस्वरूपस्तदात्मा कथं जगत्स्रष्टा स्यात? बद्धचादिविशेषगुणगणवैकल्ये च तदाऽत्मनः, अस्मदाद्यात्मनोऽप्यात्मत्वेनैव तद्वैकल्याद् मुक्तात्मनः इव संसारित्वं न स्याव , नवानां विशेषगुणानामात्यन्तिकक्षयोपेतस्यात्मनो मुक्तत्वाभ्युपगमात् तस्य चास्मदाद्यात्मस्वपि समानत्वात भवदभ्युपगमेन। ___ अथ आत्मत्वाऽविशेषेऽपि तदात्मा अस्मदाद्यात्मभ्यो विशिष्टोऽभ्युपगम्यते तहि कार्यत्वाऽदिशे. षेऽपि घटादिकार्येभ्यः स्थावरादिकार्यमकर्तृकत्वेन विशिष्टं कि नाभ्युपगम्यते ? तथा च न कार्यत्वादिलक्षणो हेतुरनुपलभ्यमानकर्तृ कैः स्थावरादिभिरव्यभिचारी स्यात् । जब कि आप वहां अतिरिक्त सम्बन्ध को न मान कर स्वत: ही समवाय और समवायी का सम्बन्ध मानते हो । यदि दूसरे समवाय से उनका अभिसम्बन्ध मानेगे तो उस समवाय को सम्बन्ध करने के लिये नये नये समवाय की कल्पना लता ( = अनवस्था) इतनी फलेगी जो आकाशतल को जा मिलेगी। यदि 'समवायी विशेष्य और समवाय विशेषण' इस प्रकार विशेषणविशेष्य भावात्मक सम्बन्ध के बल से उनका अभिसम्बन्ध मानेगे तो यहाँ विशेषण-विशेष्यभावात्मक सम्बन्ध के सम्बन्ध के लिये भी अन्य-अन्य विशेषण-विशेष्यभावात्मक सम्बन्ध की खोज करनी पड़ेगी-इस प्रकार उसी अनवस्था का पुनरवतार होता रहेगा। यदि विशेषण-विशेष्यभावात्मक सम्बन्ध का अभिसम्बन्ध पूर्वोक्त समवाय से मान लेंगे तो दोनों एक दूसरे के आधीन बन जाने से स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय दोप लगेगा। यदि उसका सम्बन्ध स्वतः ही मान लगे तो पूर्ववत् बुद्धि आदि का भी अपने अपने आधार में सम्बन्ध हो जायेगा, अत: समवाय की कल्पना निष्फल है । सारांश, समवाय किसी भी प्रमाण का विषय नहीं है। अग्रिम ग्रन्थ में उचित स्थान पर और भी उसके निषेध की युक्तियां दिखायेंगे अत: अब उसको रहने दो। कहना तो यही है कि उपरोक्त रीति से बुद्धि यदि ईश्वरात्मा से भिन्न ( पृथक् ) होगी तो सम्बन्ध की घटना न होने से मत् (मतुप) प्रत्यय की संगति नहीं हो सकेगी। [ समवाय की प्रासंगिक चर्चा समाप्त ] [ ईश्वरात्मा और बुद्धि का अभेद असंगत ] यदि ईश्वरात्मा से उसकी बुद्धि को अभिन्न (अपृथक् ) माना जाय तो भी मतुप् प्रत्यय की संगति नहीं है क्योंकि वह एक वस्तु अपने से ही कभी तद्वत् ( यानी अपनेवाली ) नही हो सकती। तदुपरांत. ईश्वरात्मा से उसकी बद्धि का भेद न होने पर a ईश्वर में बद्धि का अनुप्रवेश मानेंगे या bबद्धि में ईश्वर का अनप्रवेश मानेगे? a यदि बद्धि का ईश्वर में ही अनुप्रवेश मानेगे तो बद्धि जैसा कुछ भी नहीं रहेगा अत: आकाशादि की तरह ईश्वरात्मा भी बद्धिशुन्य जडस्वरूप हो जायेगा, फिर वह जगत् का निर्माता कैसे हो सकेगा? उपरांत, ईश्वरात्मा यदि बुद्धि आदि विशेषगुण से शून्य होगा तो आत्मत्व दोनों जगह समान होने से अपने लोगों का आत्मा भी उससे शून्य ही होगा, फलतः जैसे मुक्तात्मा विशेषगुणों के उच्छेद के कारण संसारी नहीं माना जाता उसी तरह अपने लोगों में भी संसारीत्व नहीं घटेगा। बुद्धि-सुख-दुख-इच्छा-द्वेष प्रयत्न-भावना और धर्माधर्म ये नव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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