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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर०उ०पक्षे समवाय० ४३१ अथ समवायात प्राक् पदार्थानां न सत्त्वम् नाप्यसत्त्वम् , सत्तासमवायः सत्वम् । असदेतत्यतो यदि तत्समवायात प्राक् पदार्थाः योगिज्ञानमपि न जनयन्ति तदा कथं तेषां नाऽसत्त्वम् ? अथ तद् जनयन्ति तदा कथं तेषां न सत्त्वम् ? कि च. अन्योऽन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकनिषेधस्यापरसद्भावनान्तरीयकत्वात् कथमसत्वनिषेधे न सत्त्वविधानम् ? तद्विधाने वा कथं नाऽसत्त्वनिषेधः? इत्ययुक्तमुक्तमुद्द्योतकरेण-गोत्वसम्बन्धात् प्राग् न गौः, नायगौः, गोत्वयोगाद् गौः' [ न्या. वा०२.२.६५ ] । अपि च समवायाद यदि पदार्थानां सत्त्वम् समवायस्य कुतः सत्त्वम्-इति वक्तव्यम् । यदि अपरसमवा. यात् , अनवस्था । अथ स्वत एव समवायस्य सत्त्वम् , पदार्थानामपि तत् स्वत एवास्तु, पुनरपि व्यर्थ सत्तासमवायकल्पनम् । अथ यदि नाम समवायस्य स्वतः सत्त्वमिति रूपम् कथमन्यपदार्थानामपि तदेव रूपम् इति सचेतसा वक्तुयुक्तम् ? नहि लवणस्य स्वतो लवणत्वे सूपादेरपि तव्य तिरेकेण तद् भवति । असदेतद्-यतोऽध्यक्षतः सिद्धे पदार्थस्वभावे युज्येततद् वक्तुम् , न च समवायादेः स्वरूपतः सत्त्वम् अन्यपदार्थानां तु तत्सद्भावात् सत्त्वमित्यध्यक्षात् सिद्धम् ।। है, अतः उसके लिये नये नये समवाय मानने की कल्पना का अन्त आ जायेगा ।'-तब तो समवाय की परिकल्पना ही व्यर्थ हो जायेगी, क्योंकि समवाय सम्बन्ध के विना भी आप वस्तु का सत्त्व मानते हैं। अत एव यह कथन भी शोभाविकल ही ठहरेगा कि-'सत्ता के समवाय से वस्तुओं की सत्ता होती है। [सत्तासमवाय से पदार्थसत्व की अनुपपत्ति ] पूर्वपक्षी:-समवाय के पहले पदार्थों न तो सत् है और न असत् हैं, जब सत्ता का समवाय से सम्बन्ध होता है तब सत् बनते हैं । उत्तरपक्षी:-यह बात गलत है, कारण-यदि सत्ता समवाय के पूर्व में पदार्थों से योगिओं को भी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता तो वे अत्यन्त असत् क्यों नहीं होंगे ? अगर योगिज्ञान को उत्पन्न करते हैं तब वे सत् ही क्यों नहीं होंगे? दूसरी बात यह कि दो पदार्थ यदि अन्योन्य के व्यवच्छेदकारी होते हैं, तो उनमें से एक का निषेध दूसरे के सद्भाव का अविनाभावी होता है (जैसे प्रकाश और अन्धकार), तब यदि आप असत्त्व का निरेष करगे तो सत्त्व का विधान क्यों फलित नहीं होगा? अथवा सत्त्व का विधान करेंगे तो असत्त्व का निषेध क्यों नहीं होगा ? तब यह जो न्यायवात्तिक में उदद्योतकरने कहा है-गोत्वसम्बन्ध के पहले 'गौ है' ऐसा भी नहीं है और 'गौ नहीं है' ऐसा भी नहीं है, गोत्व. सम्बन्ध होने पर वह गौ होता है। यह अयुक्त ही ठहरता है। [नमक के उदाहरण से समवाय का स्वतः सच अनुपपन्न ] नपरांत. पदार्थों का सत्त्व यदि समवायप्रयुक्त है तो समवाय का सत्त्व किप्रयुक्त है यह दिखाईये। यदि दूसरे समवाय से मानगे तो फिर तीसरे-चौथे.... इत्यादि कल्पना का अन्त नहीं आयेगा। समवाय का यदि स्वतः सत्त्व होता है तब पदार्थों का सत्त्व भी स्वतः ही मानना मान लेने से, फिर से सत्ता के समवाय की कल्पना निरर्थक है। पृवपक्षीः यह कैसी बात करते हो कि समवाय का सत्त्वस्वरूप स्वत: है तो दूसरे पदार्थों का भी सत्त्व स्वत: ही मानना पड़े-बूद्धिमान होकर ऐसा कहना ठीक नहीं है। अरे ! नमक लवणरसवाला है तो इसका मतलब यह नहीं कि सूप (दाल) आदि को भी अपने आप ही लवण स्वाद वाला मान लिया जाय ! वे तो नमक पड़ने पर हो लवणस्वादवाले बन सकते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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