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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उ०पक्षः ४२९ क्षतिरायातेति । b अथ अव्याप्त्या तत्तत्र वर्तते तदा देशान्तरोत्पत्तिमत्सु तन्वादिषु तस्याऽसंनिधानेऽपि यथा व्यापारस्तथाऽदृष्टस्याप्यन्यादिदेशेष्वसंनिहितस्यापि ऊर्ध्वज्वलनादिविषयो व्यापारो भविष्यति । इति "अग्नेरूर्वज्वलनम , वायोस्तिर्यकपवनम् , अण-मनसोश्चाद्यं कर्माऽदृष्टकारितम्" [वैशे० द०५-२-१३ ] इत्यनेन सूत्रेण सर्वगतात्मसाधकहेतुसूचनं यत् कृतं तदसंगतं स्यात् , ज्ञानादिविशेषगुणवददृष्टगुणस्य तत्राऽसंनिहितस्याप्यग्न्यायुध्वंज्वलनादिकार्येषु व्यापारसम्भवात् । न च सामान्यगुण-विशेषगुणत्वलक्षणोऽपि विशेषो गुण-गुणिनो दे सम्भवति । किच समवायस्य सर्वत्राऽविशेषे 'तत्रैव तेन वर्तनं नान्यत्र' इति कुतोऽयं विभागः ? अथ तत्राऽऽधेयत्वं समवेतत्वं, तदा आत्मवद् गगनादेरपि सर्वगतत्वे 'तदात्मन्येव तदाधेयत्वं, नान्यत्र' इति दुर्लभोऽयं विभागः । ततस्तज्ज्ञानस्य तदात्मनो व्यतिरेके 'तस्यैव तज्ज्ञानम्' इति सम्बन्धानुपपत्तिः । [ज्ञान ईश्वर में व्यापकरूप से नहीं रह सकता ] a अगर व्यापकरूप से, तब तो अपने ज्ञान से विलक्षण अर्थात् भिन्न स्वरूप वाला वह ज्ञान हुआ (क्योंकि अपना ज्ञान तो शरीर सम्बद्ध भाग में ही होता है अत: ) यह तो अदृष्ट कल्पना हुयी, जब आप ज्ञान के लिये ऐसी अदृष्ट कल्पना कर लेते हैं तो- ऐसी भी कल्पना कर सकते हैं कि यद्यपि घटादि में कर्म कर्ता-करणादि से प्रयुक्त कार्य व उपलब्ध होता है, फिर भी जंगल की हरियाली आदि जो कि बिना खेडे ही उत्पन्न है, वह चेतनकर्ताशून्य भी हो सकेगी। अदृष्ट कल्पना तो दोनों मत में तुल्य है। फलत: लाभ इच्छने वाले को नुकसान आ पड़ेगा क्योंकि स्थावर वनस्पति आदि में कार्यत्व हेतु बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व की सिद्धि करने में व्यभिचारी है। [ अव्यापक ज्ञान मानने पर आत्मव्यापकता का भंग] । यदि ज्ञान को ईश्वर में व्यापक नहीं मानते हैं ( दूसरा पक्ष ), तब तो, देशान्तर में उत्पन्न होने वाले देहादि के प्रति ईश्वरज्ञान असन्निहित होने पर भी आपको उसका व्यापार मानना पड़ेगा। जब असंनिहित (दूरवर्ती) का भी व्यापार मानेगे तब अग्नि आदि के प्रदेश में जीवों का अदृष्ट असंनिहित होने पर भी उर्ध्व ज्वलनादि क्रिया में उसका व्यापार घट सकेगा। फिर जो आपके वैशेषिक दर्शन के सूत्र में "अग्नि का उर्ध्व ज्वलन, वायु का तिरछा गमन. अणु और मन में आद्य क्रिया अदृष्ट से उत्पादित हैं"-ऐसा कह कर सर्वत्र व्यापक आत्मा के साधक हेतु का सूचन किया है वह असंगत हो जायेगा। क्योंकि जैसे ज्ञानादि विशेष गुण अव्यापक होते हये भी दूरवर्ती पदार्थ को विषय कर सकते हैं वैसे अग्नि आदि के उर्ध्व ज्वलनादि त्रियाओं के प्रति दूरवर्ती अदृष्ट गुण का भी व्यापार हो सकता है । यदि ऐसा कहें कि-'ज्ञानादि तो विशेष गुण है अतः दूरवर्ती होने पर भी वह कार्य कर सकता है, जब कि अदृष्ट गुण तो सामान्यगुण है अतः उससे वैसा नहीं हो सकता'-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जब गुणि से गुण सर्वथा भिन्न है तब यह विशेष गुण और यह सामान्यगुण' ऐसा विभाजन भी संगत नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि-जब समवाय सर्वत्र विद्यमान है तब ऐसा विभाग ही कैसे हो सकता है कि 'समवाय से ज्ञान ईश्वर में ही रहता है, अन्य में नहीं ? यदि ईश्वर में ज्ञान आधेय होने से ही वह उसमें समवेत माना जाय, तब तो आत्मा की तरह गगन भी सर्वत्र व्यापक है तो फिर 'वह ज्ञान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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