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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्ष: ४२१ कि च, a कतिपयावयवप्रतिभासे सति अवयवी प्रतिभातीत्यभ्युपगम्यते, b आहोस्वित् समस्ता. वयवप्रतिभासे ? a यद्याद्यः पक्षः, सन युक्तः, जलमग्नमहाकायस्तम्भादेरुपरितनकतिपयावयवप्रति. भासेऽपि समस्तावयवव्यापिनः स्तम्भाद्यवयविनोऽप्रतिमासनात् । b अथ द्वितीयः पक्षः, सोऽपि न युक्तः, मध्य-परभागवत्तिसमस्तावयवप्रतिभासाऽसम्भवेनावयविनोऽप्रतिभासप्रसंगात् । अथ भूयोऽवयवग्रहणे सत्यवयवी गृह्यते इत्यभ्युपगमः, सोऽपि न युक्तः, यतोऽग्भिागभाव्यवयवग्राहिणा प्रत्यक्षण परभागभाव्यवयवाऽग्रहणाद न तेन तव्याप्तिरवयविनो ग्रहीतु शक्या, व्याप्याऽग्रहणे तेन तद्व्यापकत्वस्यापि ग्रहीतुमशक्ते, ग्रहणे वाऽतिप्रसंगः । तथाहि यद् येन रूपेण अवभाति तत्तेनैव रूपेण सदिति व्यवहारविषयः-यथा नीलं नीलरूपतया प्रतिभासमानं तेनैव रूपेण तद्विषयः, अग्भिागभाव्यवयव. सम्बन्धितया चाऽवयवी प्रतिभातीति स्वभावहेतुः । न च परभागभाविष्यवाहितावयवाऽप्रतिभासनेऽप्यव्यवहितोऽवयवी प्रतिभातीति वक्तुं शक्यम् , तदप्रतिभासने तद्गतत्वेनाऽप्रतिभासनात् । यस्मिंश्च प्रतिभासमाने यद् रूपं न प्रतिभाति, तव ततो भिन्नम्-यथा घटे भासमानेऽप्रतिभासमानं पटस्वरूपम् । न प्रतिभाति चार्वाग्भागभाव्यवयवसम्बन्ध्यवयनिष्कर्ष:- अन्धकार में अवयवों का प्रतिभास न होने पर भी अवयवी का अस्पष्टावभासवाला रूप भासता है'-ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि इसमें अनेक दोष आते हैं जो ऊपर कहे हैं । [अवयवी के प्रतिभास की दो विकल्प से अनुपपत्ति ] दूसरी बात यह है कि- कुछ अवयवों का प्रतिभास होने पर अवयवी भासित होने का माना जाता है या b सभी अवयवों का प्रतिभास होने पर? a यदि प्रथम पक्ष माना जाय तो वह अयुक्त है। कारण, जलान्तर्गत विशाल स्तम्भादि का जब कुछ ही ऊपर का भाग दिखता है, उस वक्त भी समस्तावयवों में व्यापक एक स्तम्भादि अवयवी का अनुभव नहीं होता है । b यदि दूसरा पक्ष माना जाय तो वह भी अयुक्त है क्योंकि वस्तु के मध्यभागवर्ती एवं पृष्ठभागवर्ती अवयवों का प्रतिभास सम्भव ही नहीं, तब अवयवी का प्रतिभास ही नहीं होगा। पूर्वपक्षीः-हम मानते हैं कि जब बहुत अवयवों का अनुभव होता है तब अवयवी भासित होता है, न तो अल्प और न तो सर्व । उत्तरपक्षी -यह भी ठीक नहीं है। कारण, सम्मुखभागवर्ती अवयवों के ग्राहक प्रत्यक्ष से पृष्ठभागवर्ती अवयवों का ग्रहण न होने से, उस प्रत्यक्ष से 'पृष्ठभागवर्ती अवयवों में भी यह अवयवी व्याप्त है' ऐसी व्याप्ति का ग्रहण शक्य नहीं है। जब व्याप्यभूत अवयवों का ग्रहण नहीं है तब उन में व्याप्त होकर रहने वाले अवयवी का व्यापकत्वरूप से ग्रहण हो नहीं सकता, यदि होगा तो फिर सर्वत्र अतिप्रसंग होगा। वह इस प्रकार-जो जिस रूप से भासित होता है वह उसी रूप से सत् व्यवहार का विषय बन सकता है, जैसे नील वस्तु नीलरूप से भासित होती है तो नीलरूप से ही उसके सत् होने का व्यवहार होता है । यहाँ भी अवयवी सम्मुखभागवर्ती अवयवों के सम्बन्धोरूप से ही प्रतिभास का विषय बनता है । तथाविध प्रतिभासविषयत्व यह अवयवी का स्वभाव हेतु बनकर केवल अग्रभागवृत्तिरूप से ही सत्व्यवहारविषयत्व को सिद्ध करेगा। अन्यथा नील का भी नीलेतररूप से सत्व्यवहार होने का अतिप्रसंग आ सकता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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