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प्रथम खण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः
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अथैकत्वप्रतिभासाद् देशादिभेदेऽपि तन्वादेरेकता। न, देशभेदेन व्यवस्थितानामवयवानां प्रतिभासभेदेन भेदात् । न ह्ये करूपा भागा भासन्ते, पिण्डस्याणुमात्रताऽऽपत्तेः, तद्वयतिरिक्तस्य चापरस्य तन्वाद्यवयविनो द्रव्यस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलम्भेनाऽसत्त्वात् । न च तस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तता परेन भ्युपगम्यते । “महत्यनेकद्रव्यवत्त्वात रूपाच्चोपलब्धिः' [वै० द०-४-१६] इतिवचनात् । तत् सिद्धमनुपलब्धेः 'उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य' इति विशेषणम् । न च मध्योर्वादिभागव्यतिरिक्तवपुर्बहिर्ग्राह्याकारतां बिभ्राणस्तन्वादिद्रव्यात्मा दर्शने चकास्तीत्यनुपलब्धिरपि सिद्धा।
__न च समानदेशत्वादवयविनोऽवयवेभ्यः पृथगनुपलक्षणमिति वक्तु शक्यम् , समानदेशत्वादिति विकल्पानुपपत्तेः। तथाहि-समानदेशत्वमवयवाऽवयविनोः किं a पारिभाषिकम् , लौकिकं वा? a यदि पारिभाषिकम् , तदनुरोष्यम् , परिभाषाया अत्रानधिकाराव। न च तव तत्र भवदभिप्रायेण
पूर्वपक्षी:-प्रतिभासभेद ही पदार्थों का भेदक है।
उत्तरपसी: विरुद्धधर्माध्यास के विना वस्तुभेदव्यवस्थापक प्रतिभासभेद भी नहीं घट सकता, क्योंकि प्रतिभासों का भेद भी विरुद्धधर्माध्यासमूलक ही हो सकता है । अत: विरुद्धधर्माध्यास और भेद में व्याप्य-व्यापकभाव जब इस रीति से सिद्ध होता है तो तामूलक प्रसंगसाधन यहाँ लब्धप्रसर क्यों नहीं होगा?
[प्रतिभासभेद से भेदसिद्धि ] पूर्वपक्षीः हस्त-पादादि में देशादिभेद होने पर भी शरीरादि में एकत्व का भान होता है अतः शरीरादि में एकत्व सिद्ध होगा।
उत्तरपक्षी:-यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि जो दिखते हैं वे तो अवयव ही हैं और देशभेद से अवस्थित हस्त-पादादि अवयवों का प्रतिभास भी भिन्न भिन्न होता है अत: वहाँ एकता नहीं किन्तु भेद ही सिद्ध होगा। हस्त-पदादि जो अंश भासते हैं वे यदि एकरूप होकर भासेगे तब तो पूरा पिण्ड केवल अणुमात्र ही प्रसक्त होगा, क्योंकि अन्तिम अवयव तो अणु ही है ओर अवयवान्तर्गत सर्व अणु यदि एकरूप भासंगे तब तो एकाणु का ही भास होगा और जैसा भास हो वैसी वस्तु मानी जाय तब तो पिण्ड भी अणु रूप ही रह जायेगा। अवयवसमूह से भिन्न दूसरा कोई शरीरादि एक अवयवी द्रव्य तो है ही नहीं, क्योंकि यदि उसकी सत्ता मानेंगे तब तो उसे उपलब्धिलक्षणप्राप्त भी मानना होगा और उस अवयवभिन्न अवयवी द्रव्य का उपलम्भ तो होता नहीं। 'अवयवी द्रव्य को प्रतिवादी उपलब्धिलक्षणप्राप्त नहीं मानते हैं ऐसा तो है नहीं, क्योंकि यह प्रतिपक्षी के शास्त्र का वचन है कि"अनेक द्रव्यवत्ता और रूप होने के कारण महान वस्तु की उपलब्धि होती है" । वैशेषिकसूत्र में ऐसा कहा गया है। अत: हमने जो कहा है कि-'उपलब्धिलक्षणप्राप्त है फिर भी उसका उपलम्भ नहीं है' इसमें 'उपलब्धिक्षणप्राप्त यह विशेषणांश उक्त सूत्रवचन से सिद्ध है । अनुपलब्धि भी इस प्रकार सिद्ध है कि-वस्तु के दर्शन में, मध्य-उर्ध्व इत्यादि भागों से भिन्नस्वरूपवाला और बाह्यत्वेन ज्ञेयाकारता को धारण करने वाला, ऐसा कोई शरीरादि द्रव्यरूप अवयवी स्फुरता नहीं है ।
[अवयव-अवयवी की समानदेशता असिद्ध है ] पूर्वपक्षी:-अवयवो और अवयवी समानदेशवर्ती होने से ही अवयवी का स्वतंत्र उपलम्भ नहीं होता।
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