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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वराकर्तृत्वे उत्तरपक्षः ४१५ अथ 'अवयवी एको न भवति, धिरुद्धधर्माध्यासितत्वात' इत्येतत् किं 1 स्वतन्त्रसाधनम् 2 उत प्रसंगसाधनमिति ? न तावत् स्वतन्त्रसाधनं युक्तम् , अवयविनः प्रमाणाऽसिद्धत्वेन हेतोराश्रयासिद्धत्वदोषात्, प्रमाणसिद्धत्वे वा तत्प्रतिपादकप्रमाणबाधितपक्षनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन तस्य कालात्ययापदिष्टत्वदोषदुष्टत्वात् । न च परस्यावयवी सिद्ध इति नाश्रयासिद्धत्वदोष इति वक्तु युक्तम् , यतः परस्य कि a प्रमाणतोऽसौ सिद्धः b उताऽप्रमाणतः ? a प्रमाणतश्चेत तहि भवतोऽपि कि न सिद्धः, प्रमाणसिद्धस्य सर्वान् प्रत्यविशेषात् ? तथा च तदेव कालात्ययापदिष्टत्वं हेतोः । b प्रथाऽप्रमाणतस्तदा न परस्यापि सिद्ध इति पुनरप्याश्रयासिद्धत्वम् । तन्न प्रथम. पक्षः । नाऽपि द्वितीयः, यतो व्याप्याभ्युपगमो यत्र व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयकः प्रदर्श्यते तत् प्रसंगसाधनम् । न च परस्य भेद-विद्धधर्माध्यासयोाप्य व्यापकभावः सिद्धः, देशादिभेदलक्षणविरुद्धधर्माध्यासाऽभावेऽपि रूप-रसयोभदाभ्युपगमात् । तद्भावेऽपि सामान्यादावभेदस्य प्रमाण सिद्धत्वाद् इति न वक्तव्यम्, है और यहाँ जो एकत्वेन अभिप्रेत अवयवी है उसमें देशादिभेद ही विरुद्धधर्मरूप है, अतः अवयवी एक कैसे हो सकता है ? यदि विरुद्धधर्माध्यास होने पर भी अभेद मानेगे तब तो जो घट-पटादि वस्तु भिन्न भिन्न ही मानी गयी हैं उनमें भी भेदकथा समाप्त हो जायेगी, अर्थात् घट-पटादि एक हो जायेंगे। भिन्न भिन्न माने गये घट पटादि में देशादिभेद मूलक ही भेद प्रसिद्ध है, और तो कोई भेदसाधक वहां हम नहीं देखते हैं। यदि कहें कि-'घट और पट का प्रतिभास ही भिन्न भिन्न होता है अत: उसीसे वहाँ भेद सिद्ध होगा'-तो यह भी संगत नहीं, क्योंकि विरुद्धधर्माध्यासरूप भेदक के विना तो प्रतिभासों में भी भेद नहीं हो सकता। [अवयवी का विरोध स्वतन्त्रसाधन या प्रसंगसाधन ?] पूर्वपक्षीः-आपने जो कहा कि विरुद्धधर्माध्यास होने से अवयवी एक वस्तु नहीं है-इसके ऊपर प्रश्न है कि 1 यह आपका स्वतन्त्र साधन है या 2 प्रसंगसाधन ? अर्थात् आप अवयवी में स्वतन्त्ररूप से एकत्वाभाव सिद्ध करना चाहते हैं या केवल प्रतिवादी को अनिष्ट का आपादन ही करना चाहते हैं ? 1 स्वतंत्रसाधन तो सम्भव नहीं है क्योंकि जब पक्षभूत अवयवी ही प्रमाण से असिद्ध है तो उसमें एकत्वाभावसाधक हेतु को आश्रयासिद्धि दोष लगेगा। यदि आप उसको प्रमाणसिद्ध मानते हैं, तब तो अवयवी साधक जो प्रमाण है उसीसे उसमें एकत्व भी सिद्ध है [ क्योंकि अवयवों से अतिरिक्त एक अवयवी की ही प्रमाण से सिद्धि की जाती है | अत: उससे ही पक्ष में एकत्वाभाव का निदंश बाधित हो जाने के बाद प्रयुक्त होने वाला हेतु कालात्ययापदिष्ट दोष से दुष्ट बन जायेगा। ___ यदि ऐसा कहें कि-हमारे मत से पक्षभूत अवयवो असिद्ध होने पर भी दूसरे के मत में तो सिद्ध है, अत: आश्रयासिद्धि दोष को अवकाश नहीं रहेगा तो यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि दूस मत में तो वह a प्रमाण सिद्ध है या b अप्रमाणसिद्ध है ? यदि a प्रमाण सिद्ध है तब तो वह आपके लिये भी सिद्ध हो हुआ। जो प्रमाण सिद्ध होता है वह सभी के लिये किसी भेदभाव के विना सिद्ध ही होता है। अतः हेतु में कालात्य यापदिष्ट दोष तदवस्थ ही रहेगा। b यदि अवयवी अप्रमाणसिद्ध है, तब तो वह दूसरे के मत में भी सिद्ध कसे कहा जाय ? अतः फिर से वही आश्रयासिद्धि दोष को याद करो । तात्पर्य, प्रथम पक्ष तो युक्त नहीं है। 2 दूसरा पक्ष भी अयुक्त है । कारण, प्रसंग साधन का अर्थ है कि जिस में यह दिखाया जाय कि-व्याप्य के स्वीकार में व्यापक का स्वीकार अनिवार्य है। किन्तु यहाँ प्रतिवादि के पक्ष में भेद और विरुद्धधर्माध्यास में व्याप्य-व्यापक भाव ही सिद्ध नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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