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________________ ४१२ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ प्रशस्तमतिस्त्वाह-'सर्गादौ पुरुषाणां व्यवहारोऽन्योपदेशपूर्वकः, उत्तरकालं प्रबुद्धानां प्रत्यर्थनियतत्वात , अप्रसिद्धवाग्व्यवहाराणां कुमाराणां गवादिषु प्रत्यर्थनियतो वाग्व्यवहारो यथा मात्राद्युप. देशपूर्वकः ।' इति । प्रबुद्धानां प्रत्यर्थनियतत्वादिति-प्रबुद्धानां सतां प्रत्यर्थ नियतत्वादित्यर्थः । यदुपदेशपूर्वकश्च स सर्गादौ व्यवहारः स ईश्वरः प्रलयकालेऽप्यलुप्तज्ञानातिशयः इति सिद्धम् । __ तथाऽपराण्यपि उद्योतकरेण तवसिद्धये साधनान्युपन्यस्तानि-बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितं महाभूतादिकं व्यक्तं सुख-दुःखनिमित्तं भवति, अचेतनत्वात् , कार्यत्वात् , विनाशित्वात , रूपादिमत्वात् , वास्यादिवत् । [ न्या० वा०४-१-२१ ] इति । अथ भवत्वस्माद्धेतु कदम्बकादीश्वरस्य सर्वजगद्धेतुत्वसिद्धिः, सर्वज्ञत्वं तु कथं तस्य सिद्धम् येनासौ निश्रेयसाभ्युदयकामानां भक्तिविषयतां यायात् ? ( चाहे वह चेतन हो या अचेतन ), चेतनात्मा से अधिष्ठित होकर ही अपने कार्य को जन्म देते हैंऐसी हम प्रतिज्ञा करते हैं, क्योंकि वे रूपादिवाले हैं। जो जो रूपादिवाले होते हैं वे सब चेतनाधिष्ठित होकर ही अपने कार्य को उत्पन्न करते हैं, जैसे तन्तु आदि। शरीर-भुवन-करणादि के उपादान कारण भी यत: रूपादिवाले ही हैं, अतः चेतनाधिष्ठित होने पर ही अपने कार्य को उत्पन्न कर सकते हैं । शरीर-भूवन-करणादि के उपादान का जो भी चेतन अधिष्टाता सिद्ध होगा वही भगवान् ईश्वर है।"-यह अविद्धकर्ण कथित दूसरा प्रमाण हुआ। [ उद्योतकर और प्रशस्त मति के अनुमान ] उद्द्योतकर भी एक प्रमाण देता है-भुवन के हेतुभूत प्रधान, परमाणु और अदृष्ट ये सभी अपने कार्य के उत्पादन में सातिशय बुद्धि वाले अधिष्ठाता की आशा करते हैं, क्योंकि मिलकर प्रवृत्ति करते हैं जैसे तन्तु-तुरी आदि । प्रशस्तमति कहता है - सृष्टि के प्रारम्भ में पुरुषों का व्यवहार दूसरे किसी के उपदेशपूर्वक था क्योंकि, तदनन्तर प्रबुद्ध होकर ( जो व्यवहार करते हैं वह ) प्रत्येक अर्थ के प्रति नियत होता है, जैसे: जिनको वाणीव्यवहार नहीं आता है उन कुमारों का धेनु आदि प्रत्येक अर्थ में नियत वाणीव्यवहार उनकी माता के उपदेशपूर्वक होता है। यहां ग्रन्थ में 'प्रबुद्धानां प्रत्यर्थनियतत्वात्' यह कहा है उसका अर्थ है जब प्रबुद्ध होते हैं तब उनका व्यवहार प्रत्येक अर्थ में नियत होता है। प्रस्तुत में सष्टि के प्रारम्भ में जिसके उपदेश से व्यवहार प्रयुक्त होगा वही ईश्वर है और सृष्टि के पूर्व प्रलय काल में भी उसका ज्ञानातिशय अविलुप्त था यह सिद्ध होता है। उद्द्योतकर ओर भी ईश्वरसिद्धि में चार प्रमाणों का उपन्यास करता है-महाभूतादि व्यक्त पदार्थ बुद्धिमत्कारण से पूर्वाधिष्ठित होकर ही सुख दुःख के निमित्त बनते हैं, क्योंकि (१) वे स्वयं अचेतन हैं, (२) कार्यरूप हैं, ( ३ ) विनाशी हैं (४) रूपादिवाले हैं। जैसे कुटारादि । [ सर्वज्ञता के बिना भक्ति का पात्र केसे ?] प्रश्न:-आपने जो हेतु वृद दिया उन से ईश्वर मे समग्रजगत् की हेतुता सिद्ध होती है ऐसा मान ले तो भी उसमें सर्वज्ञत्व कैसे सिद्ध हुआ जिससे कि वह मुमुक्षुओं और आबादी इच्छनेवालों की भक्ति का पात्र बने? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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