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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पू० ४०७ क्षेपकता, तत्रापि कुशलं कर्म समाधि वाऽन्तरेण न तत्त्वज्ञानोत्पत्तिः, तयोस्तु संचये प्रवृत्तस्य यमनियमानुष्ठानेऽनेकविधदुःखोत्पत्तिः प्रतः कथं केवलसुखिरूपः प्राणिसर्गः ? नारक-तिर्यगादिसर्गोऽपि प्रकृतप्रायश्चित्तानां तत्रत्यदुःखानुभवे पुनविशिष्टस्थानावाप्तावभ्युदयहेतुरिति सिद्धं दुःखिप्राणिसृष्टावपि करुणया प्रवर्तनम्-तन्नाऽसर्वज्ञत्वं विशेषः । नापि कृत्रिमज्ञानसम्बन्धित्वम् , तज्ज्ञानस्य प्रत्यर्थनियमाऽभावात् । यद् ज्ञानमनित्यं तत् शरीरादिसापेक्षं प्रत्यर्थनियतम, तज्ज्ञानस्य तु शरीराद्यभावे कुतः प्रत्यर्थनियतता ? भवतु तज्ज्ञानं प्रतिनियत विषयं, न तस्य प्रतिनियतविषयत्वेऽस्माकं पक्षक्षतिः । कथं न क्षतिः ? तस्य तथाविधत्वे युग वरानत्पादप्रसंगः, तदनत्पादेच कर्तत्वाऽसिद्धिः, तदसिनौकस्य कृत्रिमज्ञानसम्बन्धिताविशेषः ? अथ युगपत्कार्यान्यथानुपपत्त्या प्रत्यर्थनियतामनेकां बुद्धिमीश्वरे प्रतिपद्येत तत्रापि संतानेन वा तथाभूता बुद्धयः, युगपट्टा भवेयुः ? प्राच्ये विकल्पे पुनरपि युगपत्कार्यानुत्पादप्रसंगः । युगपदुत्पत्तौ वा बुद्धीनां शरीरादियोगस्तस्यैषितव्यः, स च पूर्व प्रतिक्षिप्तः। पत् स्थावरानत होता। जिन लोगों का ऐसा मत है कि-'सम्यग्ज्ञान से विपर्यास निवृत्त होने पर विपर्यासजन्य क्लेश भी निर्मूल हो जाते हैं अतः वहाँ कर्मसंचय होने पर भी क्लेशात्मक सहकारी न होने से नूतनशरीर का जन्म नहीं होता'....उस मत में भी सम्यग्ज्ञान यानी तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति, कुशल कर्म या समाधि के विना नहीं होती है, और कुशलकर्म का संचय या समाधि की साधना में प्रवृत्ति करने वाले को यमनियमों के पालन में अनेक प्रकार के दुःख तो भुगतना ही होगा । अत: केवल सुखभोगी ही जीवसमूह की सृष्टि रचने का संभव ही कहाँ है ? ! प्रश्न:-नारक और तिर्यंच को तो केवल दुखानुभव ही करना है तो उसमें करुणा कैसे ? उत्तर:-वहाँ भी करुणा अस्खलित है, जैसे: जिन लोगों ने पाप का प्रायश्चित्त नहीं किया है उन को नारक-तिर्यंच भवों में जन्म दे कर वहाँ दुखानुभव कर लेने के बाद फिर से आबादी के हेतुभूत विशिष्टस्थान को प्राप्त करायेगा। इस प्रकार, दुखी प्राणिसमूह के सृजन में भी करुणा से ही ईश्वर प्रवृत्त होता है यह सिद्ध हुआ। निष्कर्ष:- असर्वज्ञत्वरूप विशेष का ईश्वर में आपादन अशक्य है । [ ईश्वर का ज्ञान अनित्य नहीं हो सकता ] ईश्वर में कृत्रिम (अनित्य ) ज्ञानसंबन्धरूप विशेष का भी आपादन शक्य नहीं है। कारण, ईश्वरज्ञान में प्रत्यर्थनियम नहीं है, अर्थात् परिमित और अमुक ही विषयों से ईश्वर ज्ञान प्रतिबद्ध नहीं है। जो अनित्य ज्ञान होता है वह तो शरीरादिसापेक्ष और प्रत्यर्थनियत ही होता है। जब ईश्वर को शरीर ही नहीं है तो प्रत्यर्थनियतता भी उस के ज्ञान में कैसे होगी । शंका:-प्रत्यर्थनियत न होने से आप इंश्वर ज्ञान को नित्य दिखा रहे हैं किन्तु ईश्वर ज्ञान को प्रतिनियतविषयक भी माना जाय तो क्या बाध है ? प्रतिनियत विषयक ईश्वरज्ञान को मानने में हमारे पक्ष की कोई क्षति नहीं है। उत्तरः-क्षति क्यों नहीं होगी ? यदि उसका ज्ञान प्रतिनियतार्थविषयक ही होगा तो एक साथ सकल स्थावर भावों की उत्पत्ति ही न हो सकेगी। उत्पत्ति न हो सकने पर उसमें कर्तृत्व ही असिद्ध हो जायेगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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