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________________ ३९८ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ अन्वयसामथ्य दपि विशेषसिद्धिम् अन्ये मन्यन्ते । यथा धूममात्रस्य वह्निमात्रेण व्याप्तिः एवं धूमविशेषस्य वह्निविशेषेण इति धूमविशेषप्रतिपत्तौ न वह्निमात्रेणान्वयानुस्मृति किन्तु वह्निविशेषेण, एवं विशिष्टकार्यत्वदर्शनाद न कारणमात्रानुस्मृतिः किन्तु तथाविधकार्यविशेषजनककारणविशेषानु. स्मतिः । तदनुस्मतावत्रान्वयसामर्थ्यादेव कारणविशेषप्रतिपत्तिरिति न विशेषविरुद्धावकाशः । एतेषां पक्षाणां युक्तायुक्तत्वं सूरयो विचारयिष्यन्तीति नास्माकमत्र निर्बन्धः, सर्वथा विशेषविरुद्धस्याऽदूषणत्वमस्माभिः प्रतिपाद्यते तद्विरुद्धलक्षणपर्यालोचनया । प्रसक्तानां च विशेषाणां प्रमाणा. न्तरबाधया, अन्वयव्यतिरेकिमूलकेवलव्यतिरेवि बलाढा, पक्षधर्मस्वसामर्शेन वा कार्यविशेषस्य कारणविशेषान्वितत्वेन वा, नात्र प्रयत्यते, सर्वथा प्रस्तुतहेतौ न व्याप्त्य सिद्धिः । न हो वहाँ तत्पूर्वक केवलव्यतिरेकी हेतु से विशेष की सिद्धि भले ही की जाय, जैसे कि घ्राणेन्द्रियादि स्थल में । किन्तु प्रथमोक्त हेतु से ही यदि धर्मीगत विशेष की भी सिद्धि होती हो तब अन्य हेत की कल्पना आवश्यक नहीं है । जैसे देखिये-धूमहेतु का अग्नि के साथ अन्वय-व्यतिरेक सिद्ध हो जाने पर 'इस देश में अग्नि है' इस प्रकार एतद्देशावच्छिन्न अग्नि की सिद्धि एतद्देश रूप पक्ष में धूम हेत की वत्तिता के बल से ही-अर्थात पक्षधर्मत्व बल से ही हो जाती है, धूम हेतु के एतद्देशावच्छिन्न अग्नि के साथ धूम के अन्वय-व्यतिरेक का सम्भव ही नहीं है । यद्यपि व्याप्तिग्रहकाल में सर्वदेशकाल के अन्तर्भाव से व्याप्ति ग्रह होते समय एतद्देश का भी अन्तर्भाव हो ही जाता है अन्यथा वह व्याप्ति ही नहीं कही जा सकती। किन्तु वह व्याप्तिग्रह सर्वदेशान्तर्गत सामान्यरूप से हुआ रहता है, एतद्देशत्वरूपेण नहीं होता। अत: हेतु के अन्वय-व्य तिरेक से एतद्देशावच्छिन्नस्वरूप अग्नि विशेष का ग्रहण शक्य नहीं है, केवल अग्निसामान्य का ही ग्रहण शक्य है । किन्तु पक्षधर्मता के प्रभाव से एतद्देशावच्छिन्न का ग्रहण होता है । इसीलिये, प्रत्युत्पन्न कारणजन्य स्मृति को अनुमान कहा गया है। यहाँ प्रत्युत्पन्न कारण पक्षधर्मता ही है । उक्त रीति से बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व के साथ कार्यत्व की व्याप्ति सिद्ध होने पर भी सर्वज्ञादिकर्तारूप कारणविशेष का बोध पक्षधर्मता के प्रभाव से ही फलित होता है कि जो इस प्रकार के पथ्वी आदि का कर्ता होगा वह नियमत: नित्यज्ञानसंबंधी, शरीरविहीन एवं एक और सर्वज्ञ ही होगा । जब पक्षधर्मता के बल से ही विशेष की सिद्धि की जाती है तब विशेषविरुद्ध अनुमानों को विरोध का अवकाश ही नहीं रहता। [ विशेषव्याप्ति के बल से विशेषसाध्य की सिद्धि ] (३) तीसरे वर्ग का कहना है कि-अन्वय (अर्थात विशेष व्याप्ति ) के सामर्थ्य से ही धर्मीविशेष की सिद्धि होती है जैसे धूम सामान्य की अग्निसामान्य के साथ व्याप्ति होतो है। वैसे धमविशेष की अग्निविशेष के साथ भी व्याप्ति सिद्ध होती है क्योंकि यह नियम है कि जिन सामान्यों का व्याप्यव्यापक भाव होता है वह उनके विशेषों में भी होता है । अतः इस नियम के अनुसार धूमविशेष यानी पर्वतीयधूम को देखने पर केवल अग्निसामान्य के साथ व्याप्ति का स्मरण नहीं होता, अपि तु अग्निविशेष यानी पर्वतीय अग्नि के साथ व्याप्ति का स्मरण होता है। ठीक इसी प्रकार, विशिष्ट कार्यत्व को देखने पर केवल कारण सामान्य की स्मृति नहीं होती किन्तु तथा प्रकार के कार्यविशेष के जनक कारणविशेष की यानी सर्वज्ञत्वादिविशिष्ट कर्ता की ही स्मृति फलित होती है। उसका स्मरण होने पर अन्वय के सामर्थ्य से ही कारणविशेष के अनुमिति बोध का उदय होता है। अतः विशेषविरुद्ध अनुमानों को अवकाश ही नहीं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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