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प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः
यदप्युक्तम्-'यद्यागमसिद्धत्वमात्मनः, तस्य वा प्रतिनियतकर्मफलसम्बन्धस्तत्सिद्धोऽभ्युपगम्यते तदाऽनुमानवैयर्थ्यम' हित तदपि मूर्खेश्वरचेष्टितम , न हि व्यर्थमिति निजकारणसामग्रीबलायातं वस्तु प्रतिक्षेप्तुयुक्तम् , न हि आगमसिद्धाः पदार्था इति प्रत्यक्षस्यापि प्रतिक्षेपो युक्तः । यदपि प्रत्यक्षानुमानविषये चाऽर्थे आगमप्रामाण्यवादिभिस्तस्य प्रामाण्यमभ्युपगम्यते-"आम्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानाम" [ जैमि०१-२-१] इति, तदप्ययुक्तम्-यतो यथा प्रत्यक्षप्रतीतेऽप्यर्थे विप्रतिपत्तिविषयेऽनुमानमपि प्रवृत्तिमासादयतीति प्रतिपादितं तथा प्रत्यक्षानुमानप्रतिपन्नेऽप्यात्मलक्षणेऽर्थे तस्य वा प्रतिनियतकर्मफलसम्बन्धलक्षणे किमित्यागमस्य प्रवृत्ति भ्युपगमय विषयः ? न चाऽऽगमस्य तत्राप्रामायमिति वक्तु युक्तम् , सर्वज्ञप्रणीतत्वेन तत्प्रामाण्यस्य व्यवस्थापितत्वात्।
उपादान कारणता के विना सहकारिकारणता उपलब्ध नहीं है। यदि ऐसा न मानेंगे तो जहाँ रूप और रस एकसामग्रीजन्य हैं वहाँ तथाविधरस से समानकालीन तथाविध रूपादि की जो व्यभिचारदोष रहित शुद्ध बुद्धि ( अनुमिति ) होती है वह नहीं हो सकेगी। तात्पर्य यह है कि किसी एक आम्रादि फल में जो रूप-रसादिक्षण सन्तति चली आती है उनकी सामग्री समान ही होने से रूपक्षण
गोत्पत्ति में उपादान कारण बनता है और रसक्षण के प्रति सहकारी कारण । अतएव रस से समानकालीन तथाविध रूप की अनमिति होती है, किन्तु वह अब न हो सकेगी क्योंकि रूपक्षण से सहकारिकारण विधया रसक्षण की उत्पत्ति होने पर भी स्वसंतति में उपादान कारण विधया उपादेय भूत रूपक्षण को उत्पत्ति होने का नियम तो नहीं है, अतः यह संभव है कि रूप से केवल रस उत्पन्न होगा, रूपोत्पत्ति नहीं होगी। इस स्थिति में कोई व्यक्ति रसक्षण हेतु से समानकालीन रूपक्षण की
| करने जावेगा तो व्यभिचार दोष प्रसक्त होगा, अत: उस अनूमिति का उच्छेद हो जायेगा। अतः उपादान कारणता के विना अन्तिमक्षण में सहकारिकारणता भी घट नहीं सकती। तब यदि बौद्धवादी संतानों का अत्यन्त उच्छेद मानते हैं तो सत्त्व का अर्थक्रियाकारित्वरूप लक्षण नहीं घट सकेगा। फलत: जैनमत के अनुसार उत्पत्ति-व्यय-ध्रौव्य तीन धर्मों का विशिष्ट समुदाय यही सत्त्व का लक्षण मानना होगा। इस विशिष्ट सत्त्व रूप कार्यविशेष से ही अर्थात् तदन्तर्गत ध्रौव्य के कारण
की मृत्यु के उत्तरकाल में ही सत्ता सिद्ध होने से उसकी उत्तरावस्था के रूप में भाविजन्म द्धि भी हो जायेगी। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ, आत्मा अतीतकाल का जैसे सम्बन्धी है वैसे भविष्यकाल का भी सम्बन्धी है।
[ आगमसिद्धता होले पर अनुमान व्यर्थ नहीं होता ] पूर्वपक्षी ने जो कहा था [ पृ० २९२ ]-"आत्मा यदि आगम से ही सिद्ध है, अथवा स्कृत का शुभफल, दुष्कृत का अशुभफल इस प्रकार के प्रतिनियतकर्म-फल का आत्मा के साथ सम्बन्ध भी यदि आगमसिद्ध है तो आत्मा और कर्म-फल सम्बन्ध का अनुमान करना व्यर्थ है"-इत्यादि....वह तो मूर्खशिरोमणि की चेष्टा है । किसी वस्तु की उत्पत्ति अगर व्यर्थ-निष्प्रयोजन है इतने मात्र से ही उसकी संपूर्ण कारण सामग्री के बल से उत्पन्न होने वाली उस वस्तु का प्रतिक्षेप करना युक्तियुक्त नहीं है । संपूर्ण कारण सामग्री सम्पन्न होने पर कार्य की उत्पति अवश्यंभावि है, वह कार्य चाहे किसी का कोई प्रयोजन सिद्ध करे या न करे-इसका कोई महत्त्व नहीं है। यदि आगम सिद्ध वस्तु के अनुमान को व्यर्थ कहेंगे तो आगमसिद्ध पदार्थों में प्रवृत्त होने वाले प्रत्यक्ष का भी 'व्यर्थ' कह कर प्रतिक्षेप किया जाना अयुक्त न होगा। प्रत्यक्ष और अनुमान का गोचर न हो ऐसे ही पदार्थों में आगम (वेद)
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