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________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः यदप्युच्यते-'शरीरान्तर्गतं संवेदनं कथं शरीरान्तरसंचारि, जीवतस्तावन्न शरीरान्तरसंचारो दृष्टः, परस्मिन् मरणसमये भविष्यतीति दूरन्वयमेतत'-तदपि न युक्तम् , यतः कुमारशरीरान्तर्गताः पाण्डित्यादिविकल्पाः वृद्धावस्थाशरीरसंचारिणो दृश्यन्ते जीवत एव, चपलतादिशरीरावस्थाविशेषाः धागविकाराश्च तत् कथ न जीवतः शरीरान्तरसंचारः ? अथैकमेवेदं शरीरं बाल-कुमारादिभेदभिन्न, जन्मान्तरशरीरं तु मातापित्रन्तरशुक्रशोणितप्रभवम् शरीरान्तरप्रभवम्-एतदप्ययुक्तम् , बाल-कुमारशरीरस्यापि भेदात, यथा च बालकुमारशरीरचपलताभेवस्तरुणादिशरीरसंचारी उपलभ्यते तथा निजजन्मान्तरशरीरप्रभवश्चपलतादिभेदः परभवभाविजन्मशरीरसंचारी भविष्यतीति न मातापितृशुक्रशोणितान्वयि जन्मादिशरीरम् अपि तु स्वसन्तानशरीरान्वयमेव वृद्धादिशरीरवत्, अन्यथा मातापितृशरीरचपलतादिविलक्षणशरीरचेष्टावन्न स्यात् । यह भी नहीं कह सकते कि-"प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों प्रमाणों का अविषय होने से-प्रमातृनियम एककर्तृकत्वमूलक है-यह सिद्ध नहीं हो सकता"-क्योंकि आत्मा स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्ध है और प्रत्यक्षमूलकअनुमान से भी आत्मा सिद्ध है यह व्यवस्था पूर्व में प्रस्थापित की गयी है । अनुसंधानप्रतीतिहेतु में जो हमने क्षणिकत्वसाधक सत्त्व हेतु की समानता दिखायी है वह तो 'कदाचित् मान लिया जाय' इस अभ्युपगमवाद से दिखायी है अतः क्षणिकत्व हमारे मत से भी सिद्ध है ऐसा मान लेने की जरूर नहीं है । क्षणिकत्व तो प्रत्यक्षप्रमाण से सिद्ध नहीं है जब कि प्रतिभासद्वयान्वयी एक आत्मा तो प्रत्यक्ष सिद्ध है, अत: कोई भी व्यक्ति ऐसा दोषारोपण कि-आत्म-एकत्व के अनुमान से प्रत्यक्ष की व्यवस्था होगी और आत्म-एकत्व का अनुमान प्रत्यक्षावलम्बी है अतः अन्योन्याश्रय दोष होगा-" नहीं कर सकता। उपरोक्त चर्चा का सार यही है कि परलोकगामी चैतन्य प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों प्रमाण से सिद्ध होने पर चार्वाक के इस सुत्र की-परलोकगामी के अभाव से परलोक का भी अभाव है'- असारता-तुच्छता सिद्ध होती है। [ परलोक के शरीर में विज्ञानसंचार की उपपत्ति ] यह जो पूर्वपक्षी चार्वाक ने कहा था कि [ १० २९१/२]- “एकशरीरअन्तर्गत विज्ञान का परलोक में अन्यशरीर में संचार कसे घटेगा ? जब कि इस जीवन में ही एकशरीर से अन्यशरीर में चतन्य का संचार नहीं देखा जाता और मृत्युकाल में दूसरे शरीर में चैतन्य का संचार होगा यह बात अन्वयशून्य यानी असम्बद्ध है।"....इत्यादि, यह भो युक्तिशून्य है । कारण, इस जीवन में चैतन्य का अन्य शरीर में संचार असिद्ध नहीं है, देखते तो हैं कि इसी जीवन में कुमारावस्था के देह में जो पांडित्य, आदि विकल्प थे उनका वृद्धावस्था के देह में भी संचार हो जाता है, कुमार शरीर की जो चपलतादि अवस्थाएँ थी ओर जिसप्रकार वाक्प्रयोग होता था वे सब वृद्धावस्था के देह में भी दिखाई देते हैं। तो 'इस जीवन में देहान्तर में संचार नहीं होता'-ऐसा कैसे कहा जाय या मान लिया जाय ? ! शंका:-इस जन्म में बाल-कुमारादिअवस्थाभेद से, भिन्न रूप में कल्पित जो देह है वह एक ही है, वास्तव में अवास्थाभेद होने पर भी देह भेद नहीं है । आप जो जन्मान्तर मानते हैं वहाँ तो दूसरे माता-पिता के शुक्र और शोणित से उत्पन्न शरीर अन्य ही है और वह अन्य शरीर से यानी माता के शरीर से जन्य है । अतः शरीरान्तर में चैतन्य का संचार कौन से दृष्टान्त से माना जाय ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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