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प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः
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अथ सत्यप्यन्वय-व्यतिरेकानुविधाने एकस्योपादानत्वेन, जनकत्वमपरस्थान्यथेति । नन्वेतदेवीपादानभावेन जनकत्वं कस्यचिद रूपस्याननुगमे प्राग्भावित्वमात्रेण दूरवसे यम् । अथाभिहितमेवापादानः कारणत्वस्य लक्षणं तदवगमात कथं तद दुरवसेयम ? सत्यम , उक्तम , न तु कस्यचिद्रूपस्याननुगम तत् सम्भवति, नाप्यवसातु शक्यम् । तथाहि-B यत् स्वगतविशेषाधायकत्वमुपादानत्वमुक्त तत् कि(१) स्वगतकतिपयविशेषाधायकत्वमाहोस्वित (२) सकलविशेषाधायकत्वमिति ? तत्र याद (१) प्रथमः पक्षः, सन युक्तः, सर्वज्ञज्ञाने स्वाकारार्पकस्यास्मदादिविज्ञानस्य तं प्रत्युपादानभावः प्रसंगात् । तथा, रूपस्यापि रूपज्ञानं प्रत्युपादानभावप्रसक्तिः, तस्यापि स्वगतकतिपयविशेषाधायकत्वात् , अन्यथा निराकारस्य बोधस्य सर्वान प्रत्यविशेषाद 'रूपस्यैवायं ग्राहको न रसादेः' इति ततः प्रतिकर्म व्यवस्था न स्यात् । रूपोपादानत्वे च ज्ञानस्य, परलोकाय दत्तो जलाञ्जलिः स्यात् । कि च, कतिपय विशेषाधायकत्वेनोपादानत्वे एकस्यैव ज्ञानक्षणस्य तत्कार्यानुगत-व्यावृत्तानेकधर्मसम्बन्धित्वाभ्युपगमे विरुद्धधर्माध्यासोऽभ्युपगतो भवति, तथा च यथा युगपद्भाव्यनेकविरुद्धधर्माध्यासेऽप्येक विज्ञान तथा क्रमभाव्यनेकतद्धर्मयोगे किमित्येकं नाऽभ्युपगम्येत ?
[ उपादान-सहकारी कारण-विभाग कैसे ? ] पूर्वपक्षी:-दोनों प्रकार के कारणों में कार्य के अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधान तुल्य होने पर भी एक उपादानरूप से उत्पादक होता है, दूसरा मात्र सहकारीभाव से-इतना स्पष्ट तो अन्तर है ।।
उत्तरपक्षी:- अरे भाई ! यह 'उपादानरूप से उत्पादकाव' जब तक उपादानत्वप्रयोजक रूपविशेष का अनुगम न हो तब तक केवल पूर्ववृत्तिता मात्र से तो दुर्गम है । तात्पर्य यह है कि जिस को आप उपादान कारण कहना चाहते हो उसमें वह कौनसी लाक्षणिकता है यह दिखाओ !
पूर्वपक्ष:-उपादान कारण के दो लक्षण पूर्व में बता तो चुके हैं, उस लक्षण से उपादानता सुबोध्य है तो दुर्गम कैसे ?
उत्तरपक्षी:-बात सही है, लक्षण तो कहा है किन्तु जब किसी स्वरूपविशेष को लक्षणरूप में दिखाया जाय तब उसका स्पष्ट अनुगम भी होना चाहिये अन्यथा न तो वहाँ लक्षण का सम्भव हो सकता है न तो उसका ज्ञान । जब उस लक्षण की समीक्षा करते हैं तब उसका काई स्वरूप ही निश्चित नहीं होता । जैसे देखिये
[स्वगतविशेषाधानस्वरूप उपादान के दो विकल्प ] 'अपने में रही हई विशेषताओं का कार्य में आधान करना' यह उपादान का दूसरा लक्षण आपने दिखाया है, उसके ऊपर प्रश्न है-(१) क्या स्वगत कुछ ही विशेष का आधान कहते हो, या (२) स्वगत सकल विशेषों का आधान ?
प्रथम पक्ष को मानेंगे तो वह अयुक्त है । कारण, हमारा-आप का जो ज्ञान है उसका ज्ञान सर्वज्ञ को होता है, वहाँ सर्वज्ञज्ञान को अपना ज्ञान ।
को होता है. वहाँ सर्वज्ञज्ञान को अपना ज्ञान भी कछ आकारार्पण करता है इसलिये अपना ज्ञान सर्वज्ञज्ञान का उपादान कारण मानने का अतिप्रसंग आयेगा । तदुपरांत रूपज्ञान में रूप भी अपने कुछ आकार का आधान करता है इसलिये रूपक्षण भी रूपज्ञानक्षण के प्रति उपादान भाव को प्राप्त हो जायेगा । यदि विषय को ज्ञान में आकारार्पक नहीं मानेंगे तो ज्ञान निराकार रहेगा, निराकार ज्ञान
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