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________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः ३५९ अथ सत्यप्यन्वय-व्यतिरेकानुविधाने एकस्योपादानत्वेन, जनकत्वमपरस्थान्यथेति । नन्वेतदेवीपादानभावेन जनकत्वं कस्यचिद रूपस्याननुगमे प्राग्भावित्वमात्रेण दूरवसे यम् । अथाभिहितमेवापादानः कारणत्वस्य लक्षणं तदवगमात कथं तद दुरवसेयम ? सत्यम , उक्तम , न तु कस्यचिद्रूपस्याननुगम तत् सम्भवति, नाप्यवसातु शक्यम् । तथाहि-B यत् स्वगतविशेषाधायकत्वमुपादानत्वमुक्त तत् कि(१) स्वगतकतिपयविशेषाधायकत्वमाहोस्वित (२) सकलविशेषाधायकत्वमिति ? तत्र याद (१) प्रथमः पक्षः, सन युक्तः, सर्वज्ञज्ञाने स्वाकारार्पकस्यास्मदादिविज्ञानस्य तं प्रत्युपादानभावः प्रसंगात् । तथा, रूपस्यापि रूपज्ञानं प्रत्युपादानभावप्रसक्तिः, तस्यापि स्वगतकतिपयविशेषाधायकत्वात् , अन्यथा निराकारस्य बोधस्य सर्वान प्रत्यविशेषाद 'रूपस्यैवायं ग्राहको न रसादेः' इति ततः प्रतिकर्म व्यवस्था न स्यात् । रूपोपादानत्वे च ज्ञानस्य, परलोकाय दत्तो जलाञ्जलिः स्यात् । कि च, कतिपय विशेषाधायकत्वेनोपादानत्वे एकस्यैव ज्ञानक्षणस्य तत्कार्यानुगत-व्यावृत्तानेकधर्मसम्बन्धित्वाभ्युपगमे विरुद्धधर्माध्यासोऽभ्युपगतो भवति, तथा च यथा युगपद्भाव्यनेकविरुद्धधर्माध्यासेऽप्येक विज्ञान तथा क्रमभाव्यनेकतद्धर्मयोगे किमित्येकं नाऽभ्युपगम्येत ? [ उपादान-सहकारी कारण-विभाग कैसे ? ] पूर्वपक्षी:-दोनों प्रकार के कारणों में कार्य के अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधान तुल्य होने पर भी एक उपादानरूप से उत्पादक होता है, दूसरा मात्र सहकारीभाव से-इतना स्पष्ट तो अन्तर है ।। उत्तरपक्षी:- अरे भाई ! यह 'उपादानरूप से उत्पादकाव' जब तक उपादानत्वप्रयोजक रूपविशेष का अनुगम न हो तब तक केवल पूर्ववृत्तिता मात्र से तो दुर्गम है । तात्पर्य यह है कि जिस को आप उपादान कारण कहना चाहते हो उसमें वह कौनसी लाक्षणिकता है यह दिखाओ ! पूर्वपक्ष:-उपादान कारण के दो लक्षण पूर्व में बता तो चुके हैं, उस लक्षण से उपादानता सुबोध्य है तो दुर्गम कैसे ? उत्तरपक्षी:-बात सही है, लक्षण तो कहा है किन्तु जब किसी स्वरूपविशेष को लक्षणरूप में दिखाया जाय तब उसका स्पष्ट अनुगम भी होना चाहिये अन्यथा न तो वहाँ लक्षण का सम्भव हो सकता है न तो उसका ज्ञान । जब उस लक्षण की समीक्षा करते हैं तब उसका काई स्वरूप ही निश्चित नहीं होता । जैसे देखिये [स्वगतविशेषाधानस्वरूप उपादान के दो विकल्प ] 'अपने में रही हई विशेषताओं का कार्य में आधान करना' यह उपादान का दूसरा लक्षण आपने दिखाया है, उसके ऊपर प्रश्न है-(१) क्या स्वगत कुछ ही विशेष का आधान कहते हो, या (२) स्वगत सकल विशेषों का आधान ? प्रथम पक्ष को मानेंगे तो वह अयुक्त है । कारण, हमारा-आप का जो ज्ञान है उसका ज्ञान सर्वज्ञ को होता है, वहाँ सर्वज्ञज्ञान को अपना ज्ञान । को होता है. वहाँ सर्वज्ञज्ञान को अपना ज्ञान भी कछ आकारार्पण करता है इसलिये अपना ज्ञान सर्वज्ञज्ञान का उपादान कारण मानने का अतिप्रसंग आयेगा । तदुपरांत रूपज्ञान में रूप भी अपने कुछ आकार का आधान करता है इसलिये रूपक्षण भी रूपज्ञानक्षण के प्रति उपादान भाव को प्राप्त हो जायेगा । यदि विषय को ज्ञान में आकारार्पक नहीं मानेंगे तो ज्ञान निराकार रहेगा, निराकार ज्ञान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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