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प्रथमखण्ड - का० १. १- परलोकवाद:
संगतम्, यतो दर्शनावस्थाप्रतिभासेन तत्सम्बद्धमेवावस्थातृरूपं गृहीतं न स्पर्शनज्ञानसम्बन्धि तत्र तदवस्थाया अनुत्पन्नत्वेनाऽप्रतिभासनात् तदप्रतिभासने च तद्व्यापित्वेनावस्थातुरप्यप्रतिभासनात् । नापि स्पर्शनप्रतिभासेन दर्शनावस्थाव्याप्तिरवस्थातुरवगम्यते, स्पर्शनज्ञाने दर्शनग्य विनष्टत्वेनाप्रतिभासनात्, प्रतिभासने चाडनाद्यवस्थापरम्पराप्रतिभास प्रसंग: । न च प्रागवस्थाऽऽतिभासने तत्वस्थाव्याप्तिरवस्थातुरवगन्तु शवया । यच्च येन रूपेण प्रतिभाति तसेनैव सदित्यभ्युपगन्तव्यम्, यथा नीलं नीलरूपतया प्रतिभासमानं तेनैव रूपेणाभ्युपगम्यते । दर्शन स्पर्शनज्ञानाभ्यां च स्वत्वमेवावस्थातृगृह्यते इति तद्रूप एवासावभ्युपगन्तव्य इति कुतोऽवस्थातृसिद्धिः ?"
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| दर्शन - स्पर्शानभास भेद से प्रत्यभिज्ञापकत्व पर आक्षेप ]
इस संदर्भ में बौद्धों की ओर से ऐसा प्रतिपक्ष नहीं किया जा सकता [ अब यहाँ पूरे परिच्छेद में बौद्ध का प्रतिपक्ष क्या है यही दिखाते हैं ] कि-
'मैंने देखा था वही 'अब छू रहा हूँ' उस प्रत्यभिज्ञा में आत्मा का दर्शनकर्तृत्व यह स्पर्शकर्तृत्व से अनुप्रविष्ट हो कर भास रहा है या विना अनुप्रवेश ही भास रहा है ? यदि अनुप्रविष्ट हो कर भास रहा हो तब तो दृष्टरूप में स्पर्शकर्तृत्वरूप के अनुप्रवेश से उसके दृष्टापन का विलय हो कर वह स्पर्शकर्ता रूप ही हो जायेगा, उसकी दृष्ट्टरूपता नही रहेगी तो 'दृष्टा में स्पर्श करता हूँ' इस प्रकार की उभयरूपतावभासक प्रत्यभिज्ञा ही केसे होगी जिस से दृष्टा और स्पर्शकर्ता के एकत्व की सिद्धि हो सके ? यदि कहें कि स्पर्शकर्तृत्वरूप के अनुप्रवेश विना ही दृष्टारूप भासित होता है, तो इस का अथ यही हुआ कि दर्शनावभास और स्पर्शावभास भिन्न हैं, तब प्रत्यभिज्ञा यह उभयस्वरूप एक ज्ञान नहीं किंतु दो भिन्न ज्ञान साबित हुए तो एक प्रत्यभिज्ञा कहाँ रही ? जब दोनों प्रतिभास ही भिन्न है तब प्रत्यभिज्ञा में एकरूपता नहीं हो सकती, अन्यथा भिन्न भिन्न घटावभास और पटावभास भी एकरूप हो जायेंगे ।
यदि कहें कि यहाँ केवल प्रतिभास ही भिन्न भिन्न है किंतु दोनों का विषय हाटा और स्पर्शकर्त्ता आत्मा तो अभिन्न एक ही है तो यहाँ प्रश्न कि यह अभेद किस से सिद्ध है ? प्रतिभास के अभेद से ऐसा तो कह नहीं सकते चूँकि अभी तो भिन्न भिन्न प्रतिभास की स्थापना की गयी है । 'स्वतः अभेद है' ऐसा भी नहीं कह सकते चूँ कि स्वत: अभेद तो अब भी विवादास्पद है । यदि यह कहा जाय - 'दर्शनावभास और स्पर्शावभास दोनों एक ही चिन्मय आत्मा की दो अवस्था है -- जब ये दो अवस्थाएं है तो उसका अवस्थाता अभिन्न एक आत्मा ही सिद्ध होगा अतः कोई भी दोष नहीं है'तो यह भी असंगत है क्योंकि दर्शनावस्था के प्रतिभास से केवल अपने से सम्बद्ध ही अवस्थातारूप यानी हप्टा का ही ग्रहण हुआ है, स्पर्शनज्ञानसम्बन्धी अवस्थातारूप का यानी स्पर्शकर्ता का तो ग्रहण ही नहीं हुआ, क्योंकि दर्शनावस्था के समय स्पर्शनावस्था का उदय न होने से वहाँ स्पर्शनावभास तो है नहीं, जब स्पर्शनावस्था ही नहीं है तो 'दर्शनावस्था का अवस्थाता स्पर्शनावस्था में भी अनुमत यानी व्यापक है' यह भी भासित नहीं हो सकता ।
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यदि कहें कि 'स्पर्शावभास से ही दर्शनावस्था में अनुगत व्यापक अवस्थाता का बोध हो जायेगा' - तो यह भी अशक्य है क्योंकि स्पर्शनकाल में दर्शन तो विनष्ट हो गया है तब उसमें अनुगत अवस्थाता का प्रतिभास कैसे होगा ? यदि स्पर्शनकाल में विनष्ट दर्शन का भी अवभास माना जाय
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