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सम्मतिप्रकरण काण्ड-१
साधा
प्रज्ञावद्भियद्यपि सम्मतिटीकाः कृता सुवह्वीः । ताभ्यस्तथापि न महानुपकारः स्वल्पबुद्धीनाम् ॥ २॥ शेमुष्युन्मेषलवं तेपामाधातुमाश्रितो यत्नः । मन्दमतिना मयाऽप्येष नात्र सम्पत्स्यते विफलः ॥ ३ ॥
[टीकाप्रारम्भः] 'इह च शारीरमानसानेकदुःखदारिद्रयोपद्रवविद्रतानां निरुपमानतिशयानन्तशिवसुखानन्यसमाऽवन्ध्यकारणसम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मकपरमरत्नत्रयजिघृक्षया प्रतिगम्भीरजिनवचनमहोदधिमवतरितुकामानां तदवतरणोपायमविदुषां भव्यसत्त्वानां तदर्शनेन तेषां महानुपकार : प्रवर्तताम् , तत्पूर्वकश्चात्मोपकारः' इति मन्वानः प्राचार्यो दुष्षमाऽरसमाश्यामासमयोद्भूतसमस्तजनताहादसंतमसविध्वंसकत्वेनाऽवाप्तयथार्थाभिधानः सिद्धसेनदिवाकरः तदुपायभूतसम्मत्याख्यप्रकरणकरण प्रवर्त्तमानः "शिष्टाः क्वचिदभीष्टे वस्तनि प्रवर्तमाना अभीष्ट देवताविशेषस्तवविधानपुरस्सरं प्रवत्तन्ते" इति तत्समयपरिपालनपरस्तद्विधानोदभूतप्रकृष्टशुभभावानल्पज्वलदनलनिर्दग्धप्रचुरतरविलष्टकर्माविर्भूतविशिष्टपरिणतिप्रभवां प्रस्तुतप्रकरणपरिसमाप्ति चाकलयन 'अर्हतामहत्ता शासनविका, पूजितपूजकश्च लोकः, विनयमूलश्च स्वर्गापवर्गादिसुखसुमनःसमूहानंदामतरसोदग्रस्वरूपप्राप्तिस्वभावफलप्रदानप्रत्यलो धर्मकल्पद्रुमः' इति प्रदर्शनपरै वनगुरुभिरप्यवाप्तामलकेवलज्ञानसंपद्भिस्तीर्थकृद्भिः शासनार्थाभिव्यक्तिकरणसमये वितिस्तत्वात शासनमतिशयतः स्तवाहम' इति निश्चिन्वन 'अ रणगुणोत्कीर्तनस्वरूप एव च पारमाथिकस्तवः' इति च संप्रधार्य शासनस्याभीष्टदेवताविशेषस्य प्रधानभूतसिद्धत्व-कुसमयविशासित्वाहत्प्रणीतत्वादिगुणप्रकाशनद्वारेण स्तवाभिधायिकां गाथामाह--
__ अर्थः-यद्यपि बुद्धिमानों के द्वारा सम्मति ग्रन्थ की अनेक व्याख्याएँ बनायी गयी हैं जिसमें अर्थ का अति बहु विस्तार से प्रतिपादन है, फिर भी अति अल्प बुद्धि वालों के लिये उनसे महान् उपकार (महदंश में) नहीं हो सकता ॥२॥ [क्योंकि, वे व्याख्याएँ विशिष्ट निपुणमति से समझी जाय ऐसे गम्भीर विवेचनरूप हैं।]
अर्थः- वैसे, अति अल्पबुद्धिवालों में कुछ भी बुद्धि विशेष का प्रकटीकरण हो जाय इसलिये मैंने इस व्याख्या के प्रयत्न का आश्रय किया है। अलबत्ता, मैं भी मंदबुद्धि है फिर भी मुझ से भी जो अधिक अल्प बुद्धि वाले लोग हैं उनको मेरी व्याख्या से प्रज्ञाविशेष का प्रकटन हो सकने के कारण मेरा यह प्रयत्न निष्फल नहीं जायेगा ।। ३ ।।
[आद्य मूलकारिका का अवतरण ] श्री सन्मतितर्कशास्त्र की प्रथम गाथा की व्याख्या के प्रारम्भ में भूमिका बनाते हुये व्याख्या. कार महर्षि कहते हैं - आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकरजी महाराज, सम्मति नाम के प्रकरण की रचना इसलिये करते हैं कि इस संसार में शारीरिक और मानसिक अनेक दुःख और दरिद्रता के उपद्रव से भव्य जीव पीड़ित हैं-ये पीड़ित भव्य लोक अनुपम और निरतिशय अर्थात् सर्वोत्कृष्ट अनंत मोक्षसुख के अनन्यसाधारण एवं अमोघ कारणभूत सम्यक ज्ञान, सम्यक् दर्शन व सम्यक् चारित्र जो श्रेष्ठ
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