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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
अथ बहिर्देशसंबद्धस्य जडस्यापि नीलादेरनुभवान्न नीलादिप्रकाशस्य तद्ग्राहकत्वमसिद्धम, नाप्यनुभूयमाने स्तम्भादिके जडे प्रकाशविषयत्वविरोधोद्भावनं युक्तिसंगतम् , प्रत्यक्षसिद्धस्वभावे वस्तुनि तद्विरुद्धस्वभावावेदकस्यानुमानस्य प्रत्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तर प्रयुक्तकालात्ययापदिष्टत्वदोषदुष्ट. हेतुप्रभवत्वेनानुमानाभासत्वात् । न च प्रत्यक्षसिद्ध स्वभावे विरोध: सिध्यति, अन्यथा ज्ञानस्यापि ज्ञानत्वविरोधप्राप्तिः। नन्वेवं नीलादिसंवेदनस्यापि हदि स्वसंवेदनविषयतयाऽनुभवान्न स्वसंविदितत्वमसिद्धम् , नाऽपि स्वात्मनि क्रियाविरोधोद्भावनं युक्तियुक्तम् , अनुभूयमाने विरोधाऽसिद्धेः । अस्वसंवेदनज्ञानसाधकत्वेनोपन्यस्यमानस्य च हेतोः प्रत्यक्ष निराकृतपक्षविषयत्वेन न साध्यसाधकत्वमित्यपि समानम् । यानी नीलादि से असंसृष्ट विज्ञान ही असिद्ध है तो (नीलादि उसका स्वरूप ही हुआ अतः) नीलादि अर्थ का वह ग्राहक कैसे होगा ? (अभिन्न वस्तु में ग्राह्य-ग्राहकता नहीं हो सकती।) बौद्ध दार्शनिक इसी लिये तो प्रमाण निर्देश करते हैं कि-"यहाँ जो कुछ भी भासित होता है वही सत्रूप से व्यवहार योग्य होता है जैसे कि भीतर में भासमान स्वरूपवाला सुख ; उस काल में पीड़ा का भास नहीं होता तो वह सुखानुभव काल में सत् नहीं होती, विज्ञान हो सकल देहधारीयों को नीलादिरूप से भासित होता है ( निराकार रूप से नहीं ), अत: विज्ञान नीलादि रूप से ही यानी नीलाभिन्नरूप से ही व्यवहार योग्य है।" यह अनुमान स्वभावहेतुक है। इस प्रकार एक ओर विज्ञान में अर्थग्राहकता असिद्ध है, दूसरी ओर 'जड वस्तु का प्रकाश' यह परस्परविरुद्ध है-इसलिये बौद्ध विद्वानों की दृष्टि से विज्ञान में अर्थग्राहकता भी अयुक्त अघटित है ।
[व्याख्याकार ने पहले जो कहा था कि विज्ञान यदि स्वप्रकाश नहीं मानेंगे तो-'विज्ञान घटादि बाह्यपदार्थ का ग्राहक नहीं है क्योंकि वैसा हष्ट नहीं है और 'जड का प्रकाश' यह विरुद्ध है'ऐसा कहने वाले बौद्ध का मुह टेढा न हो सकेगा-फिर बौद्ध मत से विज्ञान का अर्थाऽग्राहकत्व कैसे है यह बौद्ध दृष्टि से दिखाना शुरु किया था-तो यहाँ आकर उसका उपसंहार किया है, अब कुछ अपनी ओर से भी कहते हैं। ]
[जड में जडता और संवेदन में स्वसंविदितत्व अनुभव सिद्ध है ] यदि ज्ञानस्वप्रकाशताविरोधी, जड में स्वप्रकाशत्व की आपत्ति के विरुद्ध ऐसा कहें कि - "नीलादि बाह्यदेश के साथ सम्बद्ध है और जड है यह सार्वजनिक अनुभव होने से नीलादि प्रकाश यानी नीलविषयक विज्ञान में नीलादि की ग्राहकता असिद्ध नहीं, अनुभवसिद्ध है । जब नीलादि अथवा स्तम्भादि बाह्यपदार्थ में जडत्व और प्रकाश विषयत्व दोनों अनुभवसिद्ध है तब जडत्व और प्रकाश विषयत्व के विरोध का उद्भावन (यानी अनुमान) यूक्तिसंगत नहीं हो सकता। जिस वस्तु का [ नीलादि का ] स्वभाव [ जडता और प्रकाश विषयता | प्रत्यक्षसिद्ध हो उस वातु में विरुद्ध स्वभावता का आपादन करने वाला अनुमान वास्तव नहीं, अनुमानाभास है। कारण, वहाँ 'साध्य [ विपरीतस्वभावता ] रूप कर्म प्रत्यक्ष बाधित है' ऐसा निर्देश करने के बाद हेतु का प्रयोग किया जाता है, अत: वह हेतु कालात्ययापदिष्ट (बाध) दोष से दुष्ट हो गया, ऐसे दुष्ट हेतु से जो अनुमान उत्पन्न होगा वह अनुमानाभास ही हुआ। जहाँ स्वभाव प्रत्यक्षसिद्ध हो वहाँ विरोध की सिद्धि ही नहीं होती, वरना ज्ञानत्व. धर्म ज्ञान में प्रत्यक्षानुभवसिद्ध होने पर भी वहाँ ज्ञानत्व का विरोध प्रसक्त होगा और ज्ञान में जडता की प्रसक्ति होगी।"
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