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________________ ३३८ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ ननु भेदोऽप्यस्य न सिद्ध एव । प्रतिभासभेदे सति कथमसिद्धः परप्रतिभासपरिहारेण स्वप्रतिभासान् स्वप्रतिभासपरिहारेण च परप्रतिभासान् विवेकस्वभावान् व्यतिरेचयति, अन्यथा तस्याऽयोगात ? ततः स्वपरदृष्टस्य नीलादेः प्रतिभासभेदात व्यवहारे तुल्येऽपि भेद एव, इतरथा रोमाञ्चनिकरसदृशकार्यदर्शनात सवादेरपि स्व-परसन्तानभवस्तत्त्वं भवेत । प्रथापि सन्तानभेदात सुखादेर्भदः । ननु सन्तानभेदोऽपि किमन्यभेदात् ? तथा चेदनवस्था। अथ तस्य स्वरूपभेदाद् भेदः, सुखादेरपि तहि स एवास्तु, अन्यथा भेदाऽसिद्धेः । नान्यभेदादन्यद भिन्नम् . अतिप्रसंगात् । नीलादेरपि स्व-परप्रतिभासिनः प्रतिभासभेदोऽस्ति- इति नै कता। प्रकार 'नीलपदार्थ अन्य के दर्शन में भी प्रतिभासित होता है' इसमें कोई प्रमाण नहीं है क्योंकि ऐसा ज्ञान करने के लिये अन्यदीय दर्शन का भी बोध होना चाहिये, उसके विना नीलादि अन्य के दर्शन का वेद्य=विषय है यह अज्ञात ही रहता है । [ अनुमान से भी अन्यदर्शन साधारणता की सिद्धि दुष्कर ) यदि यह कहा जाय-नीलादि में अनेकदर्शन साधारणता अनुमान से व्यक्त होती है, वह इस प्रकार-एक व्यक्ति के सन्तान में जैसे नीलदर्शन से नीलग्रहणार्थ प्रवृत्ति दिखायी देती है, वैसे अन्यव्यक्ति के संतान में भी उसी नील के ग्रहणार्थ प्रवृत्ति दिखायी देती है, यह उसी नील की अन्यदर्शन ग्राह्यता के विना नहीं हो सकता, अत अन्यसंतानगतदर्शन की विषयता नीलादि में सिद्ध होगी। तो यह भी ठीक नहीं है । कारण, स्वदर्शन विषयीभूत नीलादि और अन्य दर्शनषियीभूत नीलादि में अनुमान से ऐक्य सिद्धि दुष्कर है । अनुमान तो समान रूप से नीलग्रहण में प्रवृत्ति को देखकर उत्पन्न होता है तो उससे केवल स्वदृष्ट नीलादि और पर हाट नीलादि में सादृश्य का प्रकाशन हो सकता है, ऐक्य का नहीं। जैसे पाकशाला में धूम-अग्नि का साहचर्य देखने के बाद पर्वतादि में नये धूम को देख कर पूर्वदृष्ट दहन का अनुमान नहीं होता किन्तु तत्सदश नये ही अग्नि का अनुमान होता है, क्योंकि व्याप्ति का ग्रहण सामान्यधर्मपुरस्कारेण होता है। निष्कर्ष, ग्राह्याकारों में अनुमान से भी ऐक्य सिद्ध नहीं। [प्रतिभास भेद से नीलादिभेद की सिद्धि ] बाह्यवादीः स्व-परदर्शन विषयीभूत नीलादि में अभेद सिद्ध नहीं है तो भेद भी कहाँ सिद्ध है ? विज्ञानवादी:-जब दोनों का स्व-पर प्रतिभास ही भिन्न है तो नीलादि का भेद क्यों सिद्ध नहीं होगा। नीलादि का भेद सिद्ध है तभी तो पर प्रतिभास को छोड कर भिन्न स्वभाववाले स्वकीय प्रतिभासों को अलग कर देता है और स्वप्रतिभास को छोड कर भिन्न स्वभाववाले पर प्रतिभासों को अलग कर देता है, यदि नीलादि में भेद नहीं होता तो स्व-पर प्रतिभासों में भेद ही नहीं हो सकेगा। इस से यह सिद्ध होता है कि स्वदृष्ट और परदृष्ट नीलादि में तुल्य व्यवहार होने पर भी प्रतिभास के भेद से भेद ही है। वरना, स्वसन्तान और पर सन्तान में रोमांच का उद्भद आदि तुल्य कार्य के दर्शन से स्व-पर दोनों सन्तानों में होने वाले सुखादि भी अभिन्न हो जायेंगे। यदि कहें कि यहाँ तो सुखादि के आधारभूत सन्तान भिन्न भिन्न होने से ऐक्यापत्ति नहीं है तो दूसरा प्रश्न यह होगा कि सन्तानों का भेद ही कैसे सिद्ध है ? यदि दूसरे किसी दो वस्तु के भेद से सन्तान भेद सिद्ध करेंगे तो उन दो वस्तु का भेद कैसे सिद्ध हआ-इस प्रकार प्रश्न परम्परा का अन्त नहीं आयेगा। इस अनवस्था दोष से वचने के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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