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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ अथालोकस्य तदन्तरनिरपेक्षा प्रतिपत्तिरुपलब्धेति न तद्दृष्टान्तबलाद् ज्ञानस्यापि ज्ञानान्तर. निरपेक्षा प्रतीतिः, अदृष्टस्वात, स्वात्मनि क्रियाविरोधाच्च । नन्वेवमुपलभ्यमानेऽपि वस्तुनि यद्यदृष्टत्वं विरोधश्चीच्येत तदा स्वात्मवद घटादेरपि बाह्यस्य न ग्राहकं ज्ञानम् , अष्टत्वात् जडस्य प्रकाशा. योगाच्चेत्यपि वदतः सौगतस्य न वक्त्रवक्ता समुपजायते। तथाहि-असावप्येवं वक्तुं समर्थः, जडं वस्तु न स्वतः प्रकाशते, विज्ञानवत् जडत्वहानिप्रसंगात् । नापि परतःप्रकाशमानम् , नील-सुखादिव्यतिरिक्तस्य विज्ञानस्याऽसंवेदनेनाऽसत्त्वात् । अथ 'नीलस्य प्रकाशः' इति प्रकाशमाननीलादिव्यतिरिक्तस्तत्प्रकाशः, अन्यथा भेदेनाऽस्याऽप्रतिपत्तो संवेदनस्य तत्प्रतिभासो न स्यात् । ननु न नीलतद्वदनयोः पृथगवभासः प्रत्यक्षसंभवी, प्रकाशविविक्तस्य नीलादेरननुभवात् तद्विवेकेन च बोधस्याऽप्रतिभासनात् । न चाऽध्यक्षतो विवेकेनाऽप्रतीयमानयोर्नील-तत्संविदो दो युक्तः, विवेकादर्शनस्य भेदविपर्ययाश्रयत्वात् , नील-तत्स्वरूपवत् । प्रथापि व्यतिरेकी दृष्टान्त के बल से अर्थप्रकाशकत्व को हेतु कर के विज्ञान में स्वप्रकाशकत्व की सिद्धि क्यों नहीं हो सकेगी? यह जो आपने कहा था भिन्न भिन्न अर्थ की सामग्री भिन्न भिन्न प्रकार की होती है, किसी की कुछ तो किसी की कुछ, अतः प्रकाशात्मक वस्तु अन्य प्रकाश के अभाव में भी अपने भासक ज्ञान का विषय होता है, इत्यादि.......वह तो ठीक ही है । हम भी यही कहते हैं कि जैसे प्रदीप-आलोक आदि अपनी सामग्री से उत्पन्न होते हुए स्वविषयकज्ञान में दूसरे सजातीय आलोक-दीपक आदि की अपेक्षा किये विना ही प्रतिभासित होते हैं, उसी प्रकार अपनी सामग्री से उत्पन्न होने वाला विज्ञान भी अपने आप ही अपने को प्रकाशित करने के स्वभाववाला होने से स्वविषयक ज्ञान में अन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं करता। इतना अन्तर यहाँ जरूर है कि प्रदीप-आलोकादि अपने प्रकाशन में सजातीय अन्य आलोक निरपेक्ष होने पर भी स्वविषयक प्रकाशन में ज्ञान की अपेक्षा करते हैं, और ज्ञान अपने प्रकाशन में अन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं करता, किन्तु ऐसा इसलिये है कि प्रदीपादि स्वयं जडात्मक है और ज्ञान जडात्मक न होकर चैतन्यस्वरूप है, इस लिये उतना अंतर होना सयुक्तिक है । तात्पर्य यह हैपूर्वपक्षी ने जो ऐसा कहा था कि "प्रदीप में सजातीयालोक निरपेक्षता पर भी ज्ञान में सजातीय ज्ञान निरपेक्षता स्वभाव का प्रतिपादन युक्त नहीं है"- इत्यादि, यह पूर्वपक्षी का वचन सारहीन सिद्ध होता है। [ स्वप्रकाश में अदृष्टता और विरोध की बात अनुचित ] यदि यह कहा जाय कि-"आलोक का ज्ञान सजातीय अन्य आलोक निरपेक्ष होता है इस दृष्टान्त के बल से ज्ञान प्रतीति भी सजातीय अन्य ज्ञान निरपेक्ष होती है यह मानना ठीक नहीं क्योंकि किसी भी वस्तु का ज्ञान स्वतः होता हुआ नहीं देखा गया, तदुपरांत किसी भी वस्तु में स्वविषयक यानी अपने को ही लागू पडे ऐसी क्रिया नहीं होती जैसे कि कुठार से काष्ठादि की छेदन क्रिया देखी गयी है किन्तु कुठार अपना ही छेदन करे यह नहीं देखा गया" तो यह अनुचित है क्योंकि जिस पदार्थ का स्पष्ट उपलम्भ होता है, उसमें 'ऐसा कहीं नहीं देखा गया और विरोध भी है' ऐसा कहते रहेंगे तो, ज्ञान जैसे आप के मत में स्व का प्रकाशक नहीं है वैसे ही "हमारे (बौद्ध) मत में ज्ञान बाह्य घटादि विषय का भी प्रकाशक नहीं है" ऐसा कहने में बौद्ध का मुह कभी भी टेढा नहीं हो सकेगा, क्योंकि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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