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________________ सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १ , ज्ञानमिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं तत् तत्र प्रत्यक्ष मित्यभ्युपगमात् 'तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं ' [ तस्वार्थ० १-१४ ] इति वाचक मुख्यवचनात् । तेन यथा प्रत्यक्षविषयत्वेन घटादेः प्रत्यक्षता तथाऽऽत्मनोऽपि स्वसंवेदनाध्यक्षतायां को विरोध: ? अत एव यदुच्यते-' घटादेभिन्नज्ञानग्राह्यत्वेन प्रत्यक्षता व्यवस्थाप्यते, ग्रात्मनस्त्वपरोक्षत्वेन प्रतिभासनात् प्रत्यक्षत्वम् तच्च केवलस्य घटादिप्रतीत्यन्तर्गतस्य वाऽपरसाधनं प्राक् प्रतिपादितमित्यत्र अपरसाधनमिति कोऽर्थः ? कि चिद्रूपस्य सत्ता, आहोस्वित् स्वप्रतीतौ व्यापारः ? इति पक्षद्वयमुत्थाप्य प्रथमपक्षे चिद्रूपस्य सत्त्वात्मप्रकाशनं यद्युच्यते तदा दृष्टान्तो वक्तव्यः " - इति तन्निरस्तम्, प्रध्यक्ष प्रतीतेऽर्थे दृष्टान्तान्वेषणस्याऽयुक्तत्वात् । ३२८ अथ विवादगोचरेऽध्यक्ष प्रतीतेऽपि दृष्टान्तान्वेषणं लोके सुप्रसिद्धमिति सोऽत्रापि वक्तव्यस्तदाSस्त्येव प्रदीपादिलक्षणो दृष्टान्तोऽपि ज्ञानस्य प्रकाशं प्रति सजातीयापरानपेक्षणे साध्ये । तथाहियथा प्रदीपाद्यालोको न स्वप्रतिपत्तावालोकान्तरमपेक्षते तथा ज्ञानमपि स्वप्रतिपत्तौ न समानजातीयज्ञानापेक्षम् । एतावन्मात्रेणाऽऽलोकस्य दृष्टान्तत्वं न पुनस्तस्यापि ज्ञानत्वमासाद्यते येन 'इन्द्रियाऽग्राह्यत्वाच्चक्षुष्मतामिवान्धानामपि तम्प्रतीतिप्रसंगः' इति प्रेर्यते । न हि दृष्टान्ते साध्यधर्मि- धर्माः सर्वSप्यासञ्जयितुं युक्ताः, अन्यथा घटेऽपि शब्दधर्माः शब्दत्वादयः प्रसज्येरन्निति तस्यापि श्रोत्रग्राह्यत्वप्रसंगः। न च साधर्म्यदृष्टान्तमन्तरेण प्रमाणप्रतीतस्याप्यर्थस्याऽप्रसिद्धिरिति शवयं वक्तुम्, अन्यथा जीवच्छरीरस्यापि सात्मकत्वे साध्ये तोद्वन्तत्प्र ( ? तद्वत् तत्प्र ) सिद्धदृष्टान्तस्याभावात् प्रारणादिमत्वादेस्तत्सिद्धिर्न स्यात् । मतानुयायीओं का नहीं, मीमांसकों का सूत्र है । हमारे श्री जैनमत में प्रत्यक्ष केवल इन्द्रियजनित ही नहीं होता, किंतु इन्द्रिय या अनिन्द्रिय ( अन्तःकरण) के निमित्त से जो ज्ञान जिस विषय का स्पष्ट ग्राहक होता है वह उस विषय का प्रत्यक्ष कहा जाता है । वाचकवर्य श्री उमास्वातिकृत तत्त्वार्थ सूत्र में भी 'तद् इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्' इस सूत्र से प्रत्यक्ष ज्ञान को इन्द्रिय- अनिन्द्रियजन्य दिखाया गया है । इसलिये, प्रत्यक्ष का विषय होने से घटादि में जैसे प्रत्यक्षता होती है वैसे आत्मा भी स्वसंवेदनात्मक प्रत्यक्ष का विषय है तो उस में प्रत्यक्षता मानने में क्या विरोध है ? विरोध न होने से ही आपका वह पूर्व प्रतिपादन विध्वस्त हो जाता है जो इस प्रकार था - "घटादि अपने से भिन्न ज्ञान का विषय होने से उसमें प्रत्यक्षता मानी जाती है और आत्मा में अपरोक्षरूप से प्रतिभास के कारण प्रत्यक्षता दिखायी जाती है और वह अहमाकार प्रत्यक्ष रूप आत्मप्रकाशन केवल यानी बाह्यविषय से संकीर्ण भी होता है और बाह्यविषय घटादि की प्रतीति से संकीर्ण भी होता है, किन्तु उसमें स्वभिन्न इन्द्रियादि कोई साधनभूत न होने से वह अपरसाधन कहा जाता है ( ऐसा जो आत्मप्रत्यक्षवादी का कहना है ) उस पर प्रश्न है कि अपर साधन शब्द का क्या अर्थ है ? चित्स्वरूप आत्मा की सत्ता या अपनी ही प्रतीति में सक्रियता ? इस प्रकार पक्षद्वय का उत्थान करके ( कहा था कि ) पहले पक्ष में यदि चित्स्वरूप की सत्ता को ही आत्मप्रकाशन कहते हो तब यहाँ कोई दृष्टान्त दिखाना चाहिये"इत्यादि यह सब प्रतिपादन विध्वस्त हो जाता है । कारण, प्रत्यक्षसिद्ध यानी अनुभवसिद्ध वस्तु के लिये दृष्टान्त की खोज अनावश्यक है, अयुक्त है । [ आत्मा की स्वप्रकाशता में प्रदीपदृष्टान्त की यथार्थता ] यदि कहें कि जहाँ प्रत्यक्षप्रतीति के होने पर भी विषय विवादास्पद बन जाय वहाँ दृष्टान्त की खोज की जाती है यह सर्वजनप्रसिद्ध तथ्य होने से, आत्मा की स्वप्रकाशता में दृष्टान्त कहना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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