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________________ ३२६ सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १ एतदेव कथम् ? 'ममेदं शरीरम्' इतिप्रत्ययोपादानात् 'ममायमात्मा' इति प्रत्ययाभावाच्च । ननु 'ममायमात्मा' इति किं न भवति प्रत्ययः ? न भवतोति ब्रूमः । कथं तह्य वमुच्यते ? केवलं शब्द उच्चार्यते, न तु प्रत्ययस्य सम्भवः । " अत्रापि ममप्रत्ययप्रतिभासस्याऽदर्शनात् शब्दोच्चारणमात्रं केन वार्यते ? किमिदानीं सुखादियोगः शरीरस्येष्यते ? नैवम् सुखादियोगाभावात् मिथ्याप्रत्ययोऽयं 'सुख्यहम्' इति, न त्वेतदालम्बनः । श्रतो व्यवस्थितम् - ज्ञातृप्रतिभासाऽदर्शनात्, प्रतिभासे वा शरीरस्य ज्ञातृत्वेनावभासनान्न देहादिव्यतिरिक्तस्याहंप्रत्ययविषयता, शरीरस्य च ज्ञातृत्वेनावभासमानस्यापि प्रमाणसिद्धा बुद्धियोगनिषेधान्मिथ्याप्रत्ययालम्बनता, न तु तस्याऽचैतन्येऽन्यः कश्चिद् ज्ञाता प्रत्यक्षप्रमाणविषयः सिध्यति इत्यादि....। नास्तिक:- शरीर को ही हम इसका विषय कहते हैं । जैसे: 'मैं पतला हूं' 'मैं स्थूल हूं' 'मैं गौरवर्ण का हूँ' ये सभी प्रतीतियाँ शरीर को ही विषय करती है, अतः इन प्रतीतियों में आत्मा का सामानाधिकरण्य शारीरिक पतलेपन आदि के साथ ही प्रतीत होने से शरीर ही आत्मा हुआ । आत्मवादी:-स्थूलत्वादि बुद्धियों के साथ जैसे अहंकार की समानाधिकरणता प्रतीत होती है वैसे सुखादि बुद्धियों की समानाधिकरणता भी प्रतीत होती है- 'मैं सुखी हूँ' 'मैं दुखी हूँ' इत्यादि, तो सुख-दुःखादि देहधर्म न होने से अहमाकारप्रतीति में देहविषयता नहीं घट सकती। जो आप लोग ऐसा कहते हैं कि-'मैं गौरवर्ण का हूँ' ऐसी देहधर्म समानाधिकरणतया अहमाकारप्रतीति के दर्शन से अमाकार बुद्धि का विषय देह निश्चित होता है- यहाँ भी सोचिये कि देहभिन्न वस्तु में जो गौरादिवर्ण है वहाँ तो अहंकारविषयता नहीं देखी जाती तो देहादिगत गौरादिवर्ण को भी अहमाकार प्रतीति के विषय रूप में स्थापित करना अयुक्त है । जैसा कि न्यायवार्तिककार ने कहा है कि इस दृष्टा को 'जो यह मेरा गौर रूप है वही में हूँ ऐसी बुद्धि नहीं होती है, केवल गतुप् प्रत्यत्र का लोप करके ही उक्त रीति से निर्देश किया जाता है । [ अर्थात् 'गौरदेह वाला मैं हूँ' ऐसा न कह कर 'मैं गौर हूँ' इतना संक्षिप्त निर्देश ही किया जाता है 1 । इस चर्चा का तात्पर्य यह है कि शरीर में जो अहंबुद्धि होती है वह उपचार से होती है, तात्विक रूप से नहीं । जैसे: देहभिन्न अतिनिकट रहने वाली 'कोई व्यक्ति हो ओर अपना प्रयोजन भी उससे सिद्ध होता हो तो वहाँ ऐसी गौण = औपचारिक प्रतीति होती है 'जो यह है वही मैं हूं' - तो इसी प्रकार देह भी अतिनिकटवर्ती एवं स्वप्रयोजन साधक होने से उसमे भी 'यह देह ही में हूं' इत्यादि औपचारिक बुद्धि होती है। निकटवर्ती किसी अन्य व्यक्ति में 'यह में ही हूँ' ऐसी प्रतीति होती है यह तो दोनों को मान्य है तो जो आत्मरूप नहीं है तथा 'अयं = यह' इस प्रकार प्रतीति का विषय है ऐसी अन्य व्यक्ति में 'मैं' इस प्रकार की प्रतीति जिस निमित्त से होती है, देह में भी उसी निमित्त से अहंकार बुद्धि होती है । आत्मा के विषय में जो अहंकारबुद्धि होती है उसको औपचारिक नहीं कह सकते क्योंकि 'मैं' इस प्रकार जो आत्मबुद्धि होती है उसमें 'अयम् = यह' इस प्रकार की बुद्धि का मिश्रण प्रतिभासित नहीं होता । अतः यह सिद्ध हुआ कि बोधकर्ता देहादि से भिन्न है । [ आत्मा और देह में ममत्व की समान प्रतीति- नास्तिक ] प्रश्नः - आत्मा के बारे में 'अयम् = यह' इस प्रकार प्रतिभास नहीं होता ऐसा क्यों कहते हैं ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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