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________________ प्रथमखण्ड का ० १ - परलोकवाद: यत्तूक्तम् 'आत्मनोऽदृष्टेर्नात्मानमाश्रित्य परलोक:' इति, तदयुक्तम्, तददृष्टय सिद्धेः । तथाहिदेहेन्द्रियविषादिव्यतिरिक्तोऽहंप्रत्यय प्रत्यक्षोपलभ्य एव श्रात्मा । न च चक्षुरादेः करणग्रामस्यातीन्द्रियात्मविषयत्वेन ज्ञानजननाऽव्यापारात् कथं तज्जन्यप्रत्यक्षज्ञानविषयः इति वक्तु ं युक्तम्, स्वसंवेदन प्रत्यक्षग्राह्यत्वाम्युपगमात् । तथाहि उपसंहृतसकलेन्द्रियव्यापारस्यान्धकार स्थितस्य च ' अहम्' इति ज्ञानं सर्वप्राणिनामुपजायमानं स्वसंविदितमनुभूयते, तत्र च शरीराद्यनवभासेऽपि तद्व्यतिरिक्तमात्मस्वरूपं प्रतिभाति । न चैतज्ज्ञानमनुभूयमानमप्यपह्नोतुं शक्यम् अनुभूयमानस्याप्यपलापे सर्वापलापप्रसंगात् । नाप्येतन्नोपपद्यते, कादाचित्कत्वविरोधात् । नापि बाह्य न्द्रियव्यापारप्रभवम्, तद्व्यापाराभावेऽप्युपजायमानत्वात् । नाऽपि शब्द लिगादिनिमित्तोद्भूतम्, तदभावेऽप्युत्पत्तिदर्शनात् । न चेदं बाध्यत्वेनाsप्रमारणम्, तत्र बाधकसद्भावस्यासिद्धेः । न चेदं सविकल्पकत्वेनाऽप्रमाणं, सविकल्पकस्यापि ज्ञानस्य प्रमाणत्वेन प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । कदाचिच्च बाह्येन्द्रियव्यापारकालेऽपि यदा 'घटमहं जानामि' इत्येवं विषयमवगच्छति तदा स्वात्मानमपि । तथाहि तत्र यथा विषयस्यावभासः कर्मतया तथात्मनोऽप्यवभासः कर्तृ तया । ३१९ वासना प्रबोध की बात मिथ्या है । इस प्रतिपादन के फलस्वरूप - 'एक ही ब्रह्म से समग्र प्रजा की उत्पत्ति हुयी है - यह मत भी धराशायी हो जाता है, क्योंकि जहां एक ही सन्तान से अनेक विविध ज्ञान की उत्पत्ति होती है वहाँ ऐसी प्रत्यभिज्ञा होती ही है कि 'जिसने पहले रूपानुभव किया था वही मैं स्पर्शानुभव कर रहा हूँ' - इस प्रकार अनुभवकर्त्ता में एकत्व का अनुसंधान होता है । यदि एक ही ब्रह्म से समग्र प्रजा उत्पन्न होगी तो सभी प्राणिओं को अन्योन्य के ज्ञान में एक अनुभवकर्त्ता के अनुसंधानरूप प्रत्यभिज्ञा होने लगेगी । [ आत्मा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष का विषय ] नास्तिक ने जो यह कहा था- [ पृ० २६० ] 'आत्मा दृष्टि- अगोचर होने से आत्मा के आधार पर परलोक सिद्ध नहीं हो सकता' - यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'आत्मा दृष्टि- अगोचर है' यह बात असिद्ध है । जैसे: देह, इन्द्रिय और घटादि विषय की जो प्रतीति होती है उससे भिन्न प्रकार की ही प्रत्यक्षप्रतीति 'अहम् = मैं' इस प्रकार की होती है इस प्रत्यक्षप्रतीति का उपलभ्य यानी जो विषय है वही आत्मा है । ऐसा नहीं पूछ सकते कि - 'अतीन्द्रिय आत्मा को विषय करने वाले ज्ञान के उत्पादन में नेत्रादि इन्द्रियवृन्द का कोई व्यापार सम्भव न होने से इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षप्रतीति का विषय आत्मा कैसे होगा ? ' - क्योंकि हम आत्मा को इन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष का विषय नहीं मानते किन्तु स्वसंवेदन प्रत्यक्षग्राह्य मानते हैं, अर्थात् इन्द्रिय निरपेक्ष केवल आत्ममात्र जन्य संवेदनरूप प्रत्यक्ष का विषय मानते हैं । जैसे: प्राणिमात्र को यह स्वानुभवसिद्ध है कि ज्ञाता स्वयं गाढ अन्धकार में खडा हो, सभी इन्द्रियों का व्यापार स्थगित-सा हो गया हो उस वक्त भी 'अहम् = में' इस प्रकार के स्वसंवेदी ज्ञान का उदय होता है । उस वक्त शरीरादि का तो कुछ भी प्रतिभास न होने पर भी देहभिन्न आत्मस्वरूप का भास होता हैं। सभी को ऐसा ज्ञानोदय स्वानुभवसिद्ध होने से उसका अपलाप करना अशक्य है, क्योंकि स्पष्टरूप से जिसका अनुभव होता है उसका अपलाप करने पर सभी वस्तु के अपलाप का अतिप्रसंग होगा । उक्त ज्ञान उत्पन्न नहीं होता ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि वह सर्वदा नहीं होता रहता, कदाचित् होता है, उत्पत्ति के विना कादाचित्कत्व के होने में विरोध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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