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________________ प्रथमखण्ड - का० १- परलोकवाद: परोक्षे पावकादौ यथानुमानं प्रवर्तमानमुपलभ्यते स एव न्यायः परलोकसाधनेऽप्यनुमानस्य किमित्यदृष्टो दुष्टो वा ? ! तथाहि - 'यत् कार्यं तत् कार्यान्तरोद्भूतम्, यथा पटादिलक्षणं कार्यं कार्यं चेदं जन्म' इति भवत्यतो हेतोः परलोक सिद्धिः । तथाहि [ प्र० वा० ३-३५ ] "नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणात् । श्रपेक्षा तो हि भावानां कादाचित्कत्वसम्भवः ।" न तावत् कार्यत्वमिहजन्मनो न सिद्धम्, अकार्यत्वे हेतुनिरपेक्षस्य नित्यं सत्त्वाऽसत्त्वप्रसंगात् । अथ स्वभावत एव कादाचित्कत्वं पदार्थानां भविष्यति नहि कार्यकारणभावपूर्वकत्वं प्रत्यक्षत उपलब्धं येन तदभावान्निवर्त्तेत, प्रत्यक्षतः कार्य कारणभाव मयैवासिद्धेः । यद्येवं बाह्यं नाप्यर्थेन सह कार्यकारणभावस्याऽसिद्ध: स्वसंवेदन मात्रत्वे सति श्रद्वैतम्, विचारतस्तस्याप्यभावे सर्वशून्यत्वमिति सकलव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः । तस्माद्यथा प्रत्यक्षेण बाह्यार्थप्रतिबद्धत्वमात्मनः प्रतीयते - अन्यथेहलोकस्याप्यप्रसिद्ध े :, प्रत्यक्षतः तज्जन्यस्वभावत्वानवगमे तस्य तद्ग्राहकत्वाऽसम्भवात् तथा चेहलोकसाधनार्थमंगीकर्तव्यं प्रत्यक्षं स्वार्थेनात्मनः प्रतिबन्धसाधकम् तथा परलोकसाधनार्थमपि तदेव साधनमिति सिद्धः परलोकोऽनुमानतः । यथा च बाह्यार्थप्रतिबद्धत्वं प्रत्यक्षस्य कादाचित्कत्वेन साध्यते, धूमस्यापि वह्निप्रतिबद्वत्वं तथेहजन्मनोऽपि कादाचित्कत्वेन जन्मान्तरप्रतिबद्धत्वमपि । ततोऽनल बाह्यार्थवत् परलोकेऽपि सिद्धमनुमानम् । का ही अनुवादमात्र है । यह जो कहा था कि- 'योगीयों के अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष से परलोक सिद्धि दुष्कर है चूंकि परलोक की तरह अतीन्द्रिय वस्तु को देखने वाले योगी भी असिद्ध है' इत्यादि, [ पृ० २८३ पं. ९ ] यह कथन आपके विस्मृतिस्वभाव का द्योतन है, क्योंकि अतीन्द्रियार्थ को ग्रहण करने में तत्पर योगिप्रत्यक्ष का अचिरपूर्व में सर्वज्ञसिद्धि के प्रकरण में ही प्रतिपादन कर दिया है। ३०१ यह जो नास्तिक ने कहा है कि- 'परलोक का प्रत्यक्ष न होने से तत्पूर्वक होने वाला अनुमान भी परलोक ग्रहण में प्रवृत्त नहीं है' - [ पृ० २८४ पं० १ ] वह गलत है क्योंकि प्रत्यक्ष से अविनाभाव सम्बन्ध का ग्रहण करके, परोक्ष अग्नि आदि में जैसे ( पूर्वोक्त न्याय से ) अनुमान की प्रवृत्ति होती है, उसी न्याय से परलोक को सिद्ध करने में भी अनुमान की प्रवृत्ति का होना 'न देखी गयी हो' ऐसी बात नहीं है और दुष्ट भी नहीं है । अनुमान की प्रवृत्ति इस प्रकार है - जो कुछ कार्य होता है वह कार्यान्तरजन्य होता है जैसे कि वस्त्रादि कार्य तत्तुस्वरूप कार्य से । यह जन्म भी कार्य होने से जन्मान्तर जन्य होना चाहिये इस प्रकार कार्य हेतु से जन्मा तर सिद्ध होता है। इसका विशेष समर्थन भी देखिये - [ परलोकसाधक अनुमान का दृढीकरण ] प्रमाणवार्तिक में कहा है कि “जिसका कोई हेतु नहीं है ऐसे पदार्थ को अपनी स्थिति में किसी अन्य की अपेक्षा न होने से या तो उसकी सर्वकालीन सत्ता होगी या सदा-सर्वदा असत्ता होगी । अन्य किसी की अपेक्षा होने पर ही भावों में कादाचित्कत्व [ = कालिक मर्यादा ] का सम्भव है"वर्त्तमान जन्म में कार्यत्व असिद्ध तो नहीं है, यदि वह अकार्य होगा तब तो उपरोक्त प्रमाणवार्तिक ग्रन्थ वचन के अनुसार वर्तमान जन्म की सत्ता सदा रहेगी या तो उसकी सदा असत्ता रहने का अतिप्रसंग होगा । नास्तिक :- पदार्थों में कालिक मर्यादा [ = अमुक ही काल में होना ] अपने स्वभाव से ही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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