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________________ प्रथमखण्ड - का ० १ - सर्वज्ञवाद: तान्येकत्र मीलत्विकस्य रस- कल्कादिभेदेन कर्षादिमात्राभेदेन, बाल- मध्यमाद्यवस्थाभेदेन, मूल-पत्राद्यवयवभेदेन प्रक्षेपोद्धाराभ्यामेकोऽपि योगो युगसहस्रेणाऽपि न ज्ञातु ं पार्थते किमुतानेक इति कुतस्ताभ्यामोषधशत्त - यवगमः ? तेन नानन्वयव्यतिरेक पूर्वकत्व विशेष रणस्याऽसिद्धिः । - यादिविषयवचन विशेषस्याऽपौरुषेयत्वाद् विशिष्टज्ञानपूर्वकत्वस्याऽसिद्धेरसिद्धः प्रकृतो हेतु:, पौरुषेयस्य वचनस्य पूर्वमेव निषिद्धत्वात् । नाप्यसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वेऽपि प्रकृतवचनविशेषस्य संभवादनैकान्तिकः, सविशेषणस्य हेतोविपक्षे सत्त्वस्य प्रतिषिद्धत्वात् । अत एव न विरुद्धः, विपक्ष एव वर्त्तमानो विरुद्धः, न चास्य पूर्वोक्तप्रकारेणावगतस्वसाध्यप्रतिबन्धस्य विपक्षे वृत्तिसंभवः । २७१ अथ भवतु ग्रहोपरागाभिधायकस्य वचनस्य तत्पूर्वकत्वसिद्धिरतो हेतोः तत्र तस्य संवादात्, धर्मादिपदार्थ साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वसिद्धिस्तु कथं तत्र तस्य संवादाभावात् ? न तत्रापि तस्य संवादात् । तथाहि - ज्यतिःशास्त्रादेर्ग्रहोपरागादिकं विशिष्टवर्ण-प्रमाण-दिग्विभागादिविशिष्टं प्रतिपद्य [ हेतु में अनन्वयव्यतिरेकपूर्वकत्व विशेषण की उपपत्ति ] यह भी संभव नहीं है कि अन्वय और व्यतिरेक से कोई पुरुष नष्ट - मुष्टि आदि पदार्थ को जानकर वचनविशेष का प्रतिपादन करे । अत एव हेतु में अनन्वयव्यतिरेकपूर्वकत्व विशेषण लगाया है वह असिद्ध नहीं है । चन्द्र सूर्य का ग्रहण और औषधों की विचित्र शक्तियाँ अन्वय-व्यतिरेक से अवगत नहीं की जा सकती । यह तभी हो सकता अगर ग्रहण आदि में अमुक ही दिशा में, अमुक ही प्रमाण में, अमुक ही काल में और अमुक ही फलसंपादन करने का नियम होता जैसे कि शिलीन्ध्र यानी वनस्पतिविशेष में वर्षाकाल में ही उत्पत्ति का नियम उपलब्ध है । औषधद्रव्यों कि शक्ति का ज्ञान अन्वय व्यतिरेक से मानने में भी सफलता नहीं मिलेगी चूँकि विश्व में जितने द्रव्य हैं वे सब एकत्रित किये जा और उसका अन्योन्य मिश्रण और पृथक्करण किया जाय तो हजारों युग बीत जाने पर भी रस और कल्कादि भेद से, कर्षादि तौल-माप के भेद से, बालोचित - मध्यमोचित आदि अवस्थाभेद से तथा मूल-पत्रादि अवयवभेद से किसी एक योग ( मिश्रण ) का भी पूरी जानकारी पाना कठिनतम है- दुर्लभ है तो फिर अनेक योगों की तो बात ही कहाँ ? तब कैसे अन्वयव्यतिरेक द्वारा औषधों को शक्ति जानी जा सकेगी ? इसका निष्कर्ष यही है कि अनन्वयव्यतिरेकपूर्वकत्व यह हेतु का विशेषण असिद्ध नहीं है । [ हेतु में असिद्ध - अनैकान्तिकता - विरोध का परिहार ] हमारे हेतु को यह कह कर असिद्ध नहीं बताया जा सकता कि- नष्ट - मुष्टि आदि पदार्थ संबंधी वचनविशेष अपौरुषेय है अत पुरुष के विशिष्टज्ञानपूर्वकत्वरूप साध्य ही अप्रसिद्ध है- यह कथन अनुचित होने का कारण तो स्पष्ट ही है कि अपौरुषेय वचन की संभावना का हम पहले ही निषेध कर आये हैं । यह भी शंका नहीं की जा सकती कि "प्रकृत वचन विशेष का उपदेश असाक्षात्कारि यानी परोक्षज्ञान से भी संभव होने से हेतु में अनैकान्तिकता दोष होगा" यह शंका इसलिये व्यर्थ है कि हमने जो हेतु के विशेषण लगाये हैं उसी से हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति सिद्ध हो जाती है । अत: जब अनैकान्तिक दोष का गन्ध भी नहीं है तो विरुद्ध दोष सुतरां निषिद्ध हो जाता है क्योंकि हेतु केवल विपक्ष में ही रहे तभी विरुद्ध दोष की संभावना है, वचनविशेष हेतु का पूर्वोक्त रीति से स्वसाध्य के थ अविनाभाव जब सुनिश्चित है तब विपक्ष में उसकी वृत्तिता का कोई संभव ही नहीं है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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