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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
न चानक्षजस्य ज्ञानस्य सर्ववित्संबन्धिनः कथं प्रत्यक्षशब्दवाच्यतेति वक्तुयुक्तम् , यतोऽक्षजत्वं प्रत्यक्षस्य शन्दव्युत्पत्तिनिमित्तमेव न पुनः शब्दप्रवृत्तिनिमित्तम , तन्निमित्तं हि तदेकार्थाश्रितमर्थसाक्षाकारित्वम् । अन्यद्धि शब्दस्य व्युत्पत्ती निमित्तमन्यच्च प्रवृत्तौ । यथा गोशब्दस्य गमनं व्युत्पत्ती-गोपि. डाश्रितगोत्वं प्रवृत्ती निमित्तं, अन्यथा यदि यदेव व्युत्पत्तिनिमित्तं तदेव प्रवृत्तावपि तदा गच्छन्त्यामेव गवि गोशब्दप्रवृत्तिः स्याद न स्थितायाम् , महिष्यादौ च गमनपरिणामवति गोशब्दः प्रवर्तेत । तथात्रापि प्रवृत्तिनिमित्तसद्भावात् प्रत्यक्षव्यपदेशः संभवत्येव ।
यद्वा, यदेव व्युत्पत्तिनिमित्तं तदेव प्रवृत्तावप्यस्तु तथापि तब्छन्दवाच्यतायास्तत्र नाभावः । तथाहि-अश्नुते सर्वपदार्थान् ज्ञानात्मना व्याप्नोतीति व्युत्पत्तिशब्दसमाश्रयणाद् क्षः आत्मा। तमा.
उसी प्रकार सम्यग्ज्ञान आत्मसात् हो जाने पर फिर से मिथ्याज्ञान का उदय भी हो सकेगा। -यह कहना अयुक्त है। कारण, मिथ्याज्ञान और रागादिगण प्रकृष्ट होने पर भी, मिथ्याज्ञान और रागादि के अनेक दोष का बार बार दर्शन करने से, तथा उनके विपक्ष सम्यग्ज्ञान और वैराग्य के अनेक लाभ का चिन्तन करने से यहाँ इस प्रकार के अभ्यास का प्रवर्तन संभवित हो जाता है जिससे सम्यग्ज्ञान और वैराग्य का उदय होता है। सम्यग्ज्ञान और वैराग्य जब उत्कृष्ट बन जाते हैं: काल में न तो उन दोनों के दोष का चिन्तन किया जाता है. न तो उनके विपक्ष में लाभ का चिन्तन किया जाता है, अत एव सम्यग्ज्ञान आत्मसात हो जाने पर मिथ्याज्ञान
ने पर मिथ्याज्ञान या रागादि के उद्धव की संभावना ही नहीं रहती।
[ सर्वज्ञज्ञान में प्रत्यक्षत्व कैसे ?-उत्तर ] ___ यह शंका नहीं करनी चाहिये कि-सर्वज्ञसंबंधी ज्ञान इन्द्रियजन्य तो नहीं है फिर 'प्रत्यक्ष' शब्द से उसका संबोधन कैसे ?- कारण, इन्द्रियजन्यत्व यह प्रत्यक्षशब्द का केवल व्युत्पत्तिनिमित्त है [ अर्थात अक्ष-इन्द्रिय का प्रतिगत यानी संबंधी हो वह प्रत्यक्ष इस प्रकार की व्युत्पत्ति में प्रत्यक्ष शब्द से आपाततः यही अर्थ भासित होता है जो इन्द्रियजन्य हो वह प्रत्यक्ष किन्तु यह ] प्रत्यक्षशब्द का प्रवृत्तिनिमित्त नहीं है। तात्पर्य, इन्द्रियजन्यत्व ही प्रत्यक्ष शब्द की प्रवृत्ति में निमित्तभूत यानी प्रयोजक नहीं है । किन्तु इन्द्रियजन्यत्व के साथ एकार्थआश्रित यानी उसका समानाधिकरण धर्म अर्थसाक्षात्कार ही प्रत्यक्षशब्द की प्रवृत्ति का निमित्त है । यह तो सुविदित है कि शब्द का व्युत्पत्तिनिमित्त [ यानी जिस निमित्त से वह शब्द व्युत्पन्न -- निष्पन्न होता है वह ] अन्य ही होता है और शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त [ जिसके आधार पर अर्थ में उस शब्द की प्रवृत्ति होती है वह ] अलग होता है। उदा--गमन क्रिया रूप अर्थ में गम् धातु से गो शब्द बनाया जाता है अत: गमन क्रिया गो शब्द का व्युत्पत्तिनिमित्त हुआ, धेनुरूप अर्थ में आश्रित गोत्वसामान्य जिस अर्थ में विद्यमान रहता है वहाँ गो शब्द की प्रवृत्ति होती है अतः गोत्व यह गोशब्द की प्रवृत्ति का निमित्त हुआ। ऐसा न मानकर यदि जो व्युत्पत्तिनिमित्त होता है उसी को प्रवृत्ति का भी निमित्त माना जाय तब तो गमन क्रियान्वित धेन में ही गोशब्द की प्रवत्ति होगी, खडी रहेगी तब नहीं हो सकेगी, तथा गमनक्रिया के परिणाम से अन्वित महिषी (भैंस) में भी गो शब्द की प्रवृत्ति होगी। सारांश, जैसे व्यत्पतिशय धेन में भी प्रतिनिमित्त के बल से गोशब्दप्रवत्ति होती है उसी प्रकार अर्थसाक्षात्काररूप प्रवृत्तिनिमित्त के बल पर सर्वज्ञ के ज्ञान में 'प्रत्यक्ष' शब्द प्रयोग का पूरा संभव है।
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