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________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद: २४५ संगतम् , धर्मादिग्राहकत्वाऽविरोधस्य चक्षुरादिज्ञाने प्राक् प्रतिपादितत्वात् । अभ्यासपक्षे तु यद् दूषणमभ्यधायि 'न सकलपदार्थविषयः उपदेशः सम्भवति, नाऽपि समस्तविषयोऽभ्यासः' इति, तदपि न सम्यक् , "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" [ तत्त्वार्थ० ५.२६ ] इति सकलपदार्थविषयस्योपदेशस्य सामान्यतः सम्भवात् । न चाऽस्याऽप्रामाण्यम् , अनुमानादिप्रमाणसंवादतः प्रामाण्यसिद्धेः। अनुमानादिप्रवनिद्वारेण चैतदर्थाभ्यासे कथं न सकलविषयाभ्याससंभवः ? यदपि "न च समस्तपदार्थविषयमनुपदेशज्ञानं संभवति" इत्युक्तम् , तदप्यचार, 'सर्वमनेकान्तात्मकम् , सत्वात्' इत्यनुमाननिबन्धनव्याप्तिप्रसाधकप्रमाणस्य सकलपदार्थविषयस्य संभवाद, अन्यथाऽनुमानाभावस्य प्रतिपादितत्वात् । न च तज्ज्ञानवत एव सर्वज्ञत्वाद् व्यर्थोऽभ्यासः, सामान्यविषयत्वेनाऽस्पष्टरूपस्यैवास्य ज्ञानस्य भावात् , अभ्यासजस्य च सकलतद्गतविशेषविषयत्वेन स्पष्टत्वान्न तदभ्यासो विफलः। यदपि तदभ्यासप्रवर्तकं चक्षुरादिजनितं यद्यतीन्द्रियविषयम्' इत्यवादि तदपि प्रतिक्षिप्तम् , अतीन्द्रियार्थग्राहकत्वस्यान्येन्द्रियविषयग्राहकत्वस्य च प्राक् प्रतिपादनात व्यवहारोच्छेदाभावस्य च दशि [नेत्रजन्यत्वादि चार विकल्प का निराकरण ] ___ मीमांसक की ओर से नास्तिकों ने जो ये चार विकल्प किये थे [प. २०९] 'सर्वज्ञज्ञान क्या चक्षुआदि इन्द्रियजन्य हैं ? इत्यादि'....और इन में जो यह दूषणाभिधान किया था कि-'नेत्रादि इन्द्रिय प्रतिनियत रूपादि विषय मर्यादित होने से नेत्रादिजन्य सर्वज्ञज्ञान में धर्मादिग्राहकता का अयोग यानी असंभव है' यह भी संगत नहीं है । कारण, पहले यह कहा जा चुका है कि नेत्रादि इन्द्रियजन्य ज्ञान में धर्मादिग्राहकता मानने में कोई विरोध नहीं है । तदुपरांत, उसके उपर द्वितीय विकल्प में 'सर्वज्ञज्ञान अभ्यासजन्य' इस पक्ष में जो दूषणाभिधान किया है कि-"सकलपदार्थविषयक उपदेश का संभव नहीं है और समस्त वस्तुविषयक अभ्यास भी असम्भव है"- यह दूषण मिथ्या है क्योंकि "सकल सत् पदार्थ उत्पत्तिस्थिति-विनाश धर्मत्रय संकलित होता है। इस प्रकार के सामान्यतया सर्वपदार्थवस्तुविषयक उपदेश संभवास्पद है । इस उपदेश को अप्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इस उपदेश का अनुमानादि अन्य प्रमाण के साथ पूरा संवाद होने से प्रामाण्य सिद्ध ही है। इस उपदिष्ट विषय का अनुमानादि प्रवर्तन द्वारा पुनः पुनः परिशीलन यानी अभ्यास तो किया ही जाता है-फिर सर्ववस्तुविषयक अभ्यास का असंभव भी कैसे हो सकता है ? [ सर्ववस्तुविषयक उपदेशज्ञान का संभव ] यह जो आपने कहा था-'उपदेश के विना सर्ववस्तुविषयक ज्ञान का संभव नहीं है'- यह भी अच्छा नहीं है । कारण, 'सभी पदार्थ अनेकान्तात्मक हैं क्योंकि सत् हैं' इस अनुमान में मूलभूत "जो सत् होते हैं वह सब अनेकान्तमय होते हैं" इस व्याप्ति का प्रसाधक जो तर्क प्रमाण होगा वही सकलपदार्थ को विषय करने वाला होने का सम्भव है, क्योंकि यदि उस तर्क प्रमाण को सर्ववस्तुविषयक नहीं मानेंगे तो अनुमान का ही अभाव प्रसक्त होगा यह तो कहा जा चुका है। यह शंका भी नहीं कि जा सकती कि-'यदि उक्त तर्क प्रमाणज्ञान सर्वार्थविषयक होगा तो वैसे ज्ञानवाला पुरुष सर्वज्ञरूप से सिद्ध हो जाने के कारण अभ्यास से सर्वज्ञ होने की बात व्यर्थ हो जायेगी'-यह शंका तभी की जा सकती यदि तक प्रमाण से स्पष्टरूप से पदार्थों का संवेदन होता। तर्क प्रमाणज्ञान तो सामान्य ग्राही होने के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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