SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद: २४३ न च भिन्नपदार्थनाहि प्रत्यक्षद्वयं द्वितीयाऽग्रहणे तदपेक्षं कार्यत्वं कारणत्वं वा ग्रहीतुमशक्तमिति वक्तु युक्तम् , क्षयोपशमवतां धममात्रदर्शनेऽपि वह्निजन्यतावगमस्य भावात् , अन्यथा बाष्पादिवलक्षण्येन तस्यानवधारणात् ततोऽनलावगमाभावेन सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसंगात् । कारणाभिमतपदार्थग्रहरणपरिणामाऽपरित्यागवता कार्यस्वरूपग्राहिणा च प्रत्यक्षेण कार्य कारणभावावगमे न कश्चिद् दोषः । न च कारणस्वभावावभासं प्रत्यक्षं न कार्यस्वभावावभासयुक्तं प्रतिभासभेदेन भेदोपपत्तरिति प्रेरणीयम्चित्रप्रतिभासिज्ञानस्य नीलप्रतिभासाऽपरित्यागप्रवृत्तपीतादिप्रतिभास्येकत्ववत प्रकृतज्ञानस्यापि तदविरोधात् । न च चित्रज्ञानस्याप्येकत्वमसिद्धमिति वक्त युक्तम् , तथाभ्युपगमे नीलप्रतिभासस्यापि प्रतिपरमाणुभिन्न प्रतिभासत्वेन भिन्नत्वात् एकपरमाण्ववभासस्य चाऽसंवेदनात् प्रतिभासमात्रस्याप्यभावप्रसंगात सर्वव्यवहाराभावः स्यात् । शक्य नहीं है, क्योंकि स्वरूपतः जो अकार्य और अकारणरूप है उसमें, अभित्ररूप से कार्य-कारणता का आपादन विरुद्ध है । भिन्नरूप से भी कार्य-कारणता का आपादन सम्बन्ध के द्वारा अशक्य है क्योंकि तब कार्य-कारण को स्वरूप से अकार्य और अकारणरूप मानने की आपत्ति होगी। दूसरी बात यह है कि जो स्वरूपत: कार्य और कारणरूप ही है उनके बीच अर्थान्तर भूत कार्यकारणभावनामक संबन्धकी कल्पना का कोई प्रयोजन भी नहीं है, क्योंकि उसके विना भी वे अपने स्वरूप से ही कार्य रूप और कारणरूप है । अतः अतिरिक्त कार्यकारणभाव संबन्ध अप्रामाणिक है । [क्षयोपशमविशेष से कार्यकारणभाव का ग्रहण] यदि ऐसा आक्षेप किया जाय कि-कार्य ग्राहक और कारण ग्राहक प्रत्यक्ष भिन्न भिन्न है, जब कारण ग्राहक प्रत्यक्ष से कार्य का और कार्यग्राहक प्रत्यक्ष से कारण का ग्रहण ही नहीं होता तो कारणसापेक्ष कार्यत्व का और कार्यसापेक्ष कारणत्व का किसी एक या उभय प्रत्यक्ष से भी ग्रहण होना शक्य नहीं है । तो यह आक्षेप अज्ञान मूलक है क्योंकि जिसका तीव्र क्षयोपशम होता है उसको केवल धूम दर्शन से भी अग्निजन्यता का बोध हो जाता है, जिसको वह क्षयोपशम नहीं रहता उसको नहीं होता है क्षयोपशम के रहने पर धूम दर्शन से यदि अग्निजन्यता के बोध का अपलाप किया जायेगा तो फिर धूम का दर्शन होने पर भी बाष्पादि से भिन्नरूप में सदैव धूम का दृढ निश्चय न होने के कारण अग्नि का बोध भी नहीं होगा और तब अग्नि के अर्थी का जो प्रवृत्ति आदि व्यवहार होता है उन सब का उच्छेद हो जायेगा । यह भी हम कह सकते है कि यदि एक ही प्रत्यक्ष कारणरूप से अभिमत पदार्थ के ग्रहणपरिणाम का त्याग न करता हुआ कार्यस्वरूप को भी ग्रहण कर लेता है और तब उससे दोनों का कार्यकारणभाव अवधारित कर लिया जाता है तो इसमें भी कोई दोष नहीं है। इस पर यह मत कहना कि-जो प्रत्यक्ष कारणस्वभावावभासक है वह कार्यस्वभाव का अवभासक नहीं हो सकता क्योंकि दोनों वस्तु का प्रतिभास यानी अवभास भिन्न भिन्न होने से कार्यावभासी और कारणावभासी प्रत्यक्ष भी भिन्न ही होना चाहिये । इस कथन के निषेध का कारण यह है कि जैसे एक ही चित्ररूपप्रतिभासि ज्ञान नील प्रतिभास का परित्याग न करता हआ पीतरूपप्रतिभासी भी होता है उसी प्रकार कारण और कार्य उभय प्रतिभासी प्रस्तूत ज्ञान भी एक हो सकता है। इसमें कोई विरोध संभव नहीं है। यह कहना कि-'चित्रज्ञान में भी एकत्व असिद्ध ही है'-उचित नहीं है, कारण इस ज्ञान में यदि आप एकत्व का अपलाप करेंगे तो नील प्रतिभास भी स्थूल वस्तु विषयक होने के कारण, उस स्थूल वस्तु अन्तर्गत प्रत्येक परमाणु के भिन्न भिन्न प्रतिभास से वह नील प्रतिभास भी आपको Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy