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________________ २४० सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ किंच, तिर्यक्सामान्यवादिनोऽपि गोपालघुटिकादौ धूमसामान्यस्याग्निमन्तरेणापि दर्शनाद् व्यभिचाराशंकयाऽग्निनियतधमसामान्यावधारणेनैव तदनुमानम् । अग्निनियतधमसामान्यावधारणं चाग्निसंबद्धधमव्यक्त्यवधारणपुरस्सरमेव । न च सर्वदेशादावग्निसंबद्धधमव्यक्तिविशिष्टस्य धूमसामान्यस्य केनचित्र प्रमाणेनावधारणं संभवति । न च महानसादावग्निनियतधूमव्यक्तिविशिष्टं धूमसामान्यं प्रतिपन्नमन्यत्रानुयायि, व्यक्तेरनन्वयात् । यच्च धूमसामान्यमनुयायि तद् नान्यव्यभिचारि, तस्मात् सामान्यव्याप्तिग्रहणवादिनामपि कथं विशिष्टधूमसामान्यं सर्वत्राग्निना व्याप्त प्रतिपन्नमिति तुल्यं चोद्यम् । अथ विशिष्टधूमस्यान्यत्राग्निजन्यत्वे न किंचिद् बाधकमस्ति, 'तदेवेदम्' इति च प्रतीतेः तत्सामान्य प्रतीतमिष्यते, अस्माकमपि तदेवेदं वचनम्' इतिप्रत्ययस्योत्पत्तेस्तत प्रतिपन्नमिति सदृशपरिणामलक्षणसामान्यवादिनो जैनस्य भवतो वा को विशेषोऽत्र वस्तुनि ? इति यत्किंचिदेतद् । तेनाऽग्निगमकत्वेन धूमस्य यो न्यायः सोऽत्रापि समान इति विशिष्ट ज्ञानगमकत्वं विशिष्टशब्दस्याभ्युपगंतव्यम् । अविसंवादीवचन में अविसंवादिज्ञानजन्यता को साक्षात् करने में प्रत्यक्ष समर्थ है क्या? नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष तो केवल संनिहितपदार्थग्राही होता है । यह शक्य नहीं है कि असंनिहित अविसंवादिवचन व्यक्तिरूप स्वलक्षणों में अविसंवादिज्ञानजन्यतारूप साध्यधर्म की व्याप्ति का ज्ञान अनुमान से किया जाय । क्योंकि तब उस अनुमान में भी पूनः सकलव्यक्तिसाक्षात्कार की पूर्ववत अपेक्षा खडी होगी और वहाँ भी नया अनमान खिच लायेंगे तो इस प्रकार नये नये अनमानों की अपेक्षा का 3 अनवस्था दोष लगेगा।" यह शंका भी यक्त नहीं है, क्योंकि जब अविसंवादिज्ञानवान में ही अविसंवादिवचन प्रकारों की उपलब्धि होगी तब उन अविसंवादि वचनों में "विसंवादिवचन का वैलक्षण्यरूप धर्म विसंवादिज्ञानविलअणज्ञानजन्य है" इस प्रकार का अवधारण भी प्रत्यक्ष से ही हो जायेगा । उसके उ.पर उहापोह से यह भी पता लग सकता है कि अन्य काल और अन्य देश में भी जो कोई अविसंवादी वचन होगा वह अविसंवादीजानजन्य ही होना चाहिये। यदि अविसंवादिजान के विरह में भी अविसंवादि वचन का संभव हो तो यहाँ जो अविसंवादिवचन अविसंवादिज्ञानजन्य होने का प्रत्यक्ष से दिखाई रहा है वह नहीं दिखाई देता । तात्पर्य यह है कि यदि अविसंवादिवचन अविसंवादिज्ञानजन्य होने की संभावना होती तब अविसंवादिवचन में उभय प्रकार की यानी अविसंवादीज्ञानजन्यता और विसंवादीज्ञानजन्यता की प्रतीति अवश्य होती, केवल अविसंवादीज्ञानजन्यतारूप में ही जो उसकी प्रतीति होती है वह नहीं होती। प्रतीति तो ऐसी ही होती है कि अविसंवादिवचन अविसंवादिज्ञानजन्य है, अत: अन्य देश-काल में भी अविसंवादीवचन अविसंवादोज्ञानजन्य ही होता है यह सुनिश्वित होता है फिर व्यभिचार की बात कहाँ ? हाँ, यह बात ठीक है कि प्रत्यक्ष प्रतीति में "यह विसंवादिज्ञानविलक्षणता अवश्य अविसंवादिज्ञानजन्य है' इस प्रकार का अवधारण करने की शक्ति जिस में होगी उसीको अन्य देश-कालवर्ती अविसंवादीवचन में अविसंवादिज्ञानजन्यता का अनुमान हो सकेगा, दूसरे को नहीं। उदा० बाष्पादि से विलक्षणरूप में जिसको धूम का अवधारण -दर्शन होता है उसको अग्नि का अनुमान होता है दूसरे को नहीं। [तियक सामान्यवादी को विशिष्टधूमसामान्य अबोध की आपत्ति ] तिर्यक् सामान्यवादि को यह भी सोचना होगा कि यदि धूम सामान्य से आप अग्नि का अनुमान होना मानेंगे तो गोपालघुटिका ( हुक्का ) में विना अग्नि भी धूमसामान्य का सद्भाव दिखाई देने से व्यभिचार की शंका हो जायगी और उसके निवारणार्थ आप को धूमसामान्य में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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