________________
प्रथमखण्ड - का० १. सर्वज्ञवाद :
ग्रहणे समर्थमुपलभ्यत इति धर्मादेरपि देश-काल- स्वभावविप्रकृष्टस्य कस्यचित् पुरुषविशेषस्य पुण्यादिसंस्कृतं चक्षुरादि ग्राहकं भविष्यतीति न कश्चित् दृष्टस्वभावव्यतिक्रमः ।
२३३
अथ चक्षुरादेः करणस्य प्रतिनियतरूपादिविषयत्वेनान्यकरण विषयग्राहकत्वे स्वार्थातिक्रमो हार विलोपी स्यात् । ननु श्रूयत एव चक्षुषा शब्दश्रवणं प्राणिविशेषाणाम् - 'चक्षुःश्रवसो भुजङ्गाः' इति लोकप्रवादात् । 'मिथ्या स प्रवाद' इति चेत् ? नैतत् प्रवादबाधकस्याभावात् कर्णच्छिद्रानुपलमधेश्च । न च दन्दशूकश्श्र्चक्षुषो जात्यन्तरत्वात् इत्युत्तरमत्रोपयोगि, श्रन्यत्रापि प्रकृष्टपुण्यसंभारजनितप्रत्यक्षस्या विरोधाद् न प्रत्यक्षत्व सत्संप्रयोगजत्वा देव्याप्यव्यापकभावसिद्धिरिति न प्रसंग- विपर्यययोः प्रवृत्तिरिति न ततस्तत्प्रतिक्षेपः ।
[ नेत्र से अतीन्द्रियार्थदर्शन की सोदाहरण उपपत्ति ]
तदुपरांत यह भी देखा जाता है कि स्वयं आलोकरहित एवं अन्धकार से आवृत ऐसे मूषक आदि को रात में घूमने वाले बिल्ली आदि की आँख देख लेती है - तो इसी प्रकार अतीन्द्रिय भूत-भावी धर्मादि पदार्थ को साक्षात् करने वाले विसी पुरुष की संभावना की जाय तो उसमें क्या दोष है ? यदि यह तर्क किया जाय पशु आदि अन्य जाति के प्राणि में ही अन्धकारावृत रूपादि पदार्थ को ग्रहण करने वाले नेत्र देखने में आता है किन्तु मनुष्य जाति में ऐसा नेत्र दृष्ट नहीं है अतः अतीन्द्रियदृष्टा पुरुष की संभावना नहीं हो सकती' तो यह भ्रमपूर्ण है क्योंकि निर्जीवकादि मनुष्य के द्रव्यविशेषादि से संस्कार किये गये नेत्र का यह सामर्थ्य देखा जाता है कि समुद्र जलादि से व्यवहित पर्वतादि भी उनके नेत्र से गृहीत होते हैं, तो अब हम संभावना व्यक्त करें कि देश, काल और स्वभाव से दूरवर्ती धर्मादि किसी पुरुषविशेष के पुण्यादि से संस्कृत चक्षु ग्रहण कर लेगी तो इसमें कोई अदृष्ट कल्पना अथवा दृष्ट स्वभाव का उल्लंघन जैसा कुछ नहीं है ।
[ विषयमर्यादा भंग की आपत्ति का प्रतीकार ]
यदि यह तर्क किया जाय कि - "चक्षु आदि इन्द्रिय की रूपादि विषय ग्रहणशक्ति मर्यादित होने से यदि नेत्रादि इन्द्रिय घ्राणादि इन्द्रिय ग्राह्य अर्थ के ग्रहण का व्यवसाय करेगी तो उसकी अपनी विषय मर्यादा का भंग हो जायेगा और उससे 'नेत्र से रूप और श्रोत्र से शब्द ही गृहीत होता है'इत्यादि व्यवहारों का भी लोप हो जायेगा ।" यह भी तथ्यशून्य है क्योंकि प्राणिविशेष को नेत्र से शब्द का श्रवण होता है यह सुनने में आता है जैसे कि यह प्रसिद्ध लोकोक्ति है - 'सर्प नेत्रश्रावी है' । अगर कहें कि वह लोकोक्ति मिथ्या है तो यह अनुचित है क्योंकि एक तो यह कि उस उक्ति में कोई बाधक नहीं है और दूसरी बात, सर्प में कर्णछिद्र भी उपलब्ध नहीं होते । कदाचित् यहाँ ऐसा समाधान किया जाय कि 'सर्प के नेत्र तो एक विलक्षण ही जाति के हैं अतः उसमें वह शब्दश्रवणशक्ति हो सकती है तो यह समाधान यहाँ निरुपयोगी है क्योंकि सर्वज्ञ के लिये भी हम कह सकते हैं कि उसका नेत्र उत्कृष्ट पुण्य सामग्री से उपार्जित होने के कारण सर्वज्ञ का नेत्र भी असाधारण जाति का आलौकिक है जिससे सर्ववस्तु का ग्रहण हो सकता है ।
उपरोक्त चर्चा का सार यह है नेत्रादिजन्य प्रत्यक्ष को धर्मादिसमस्त वस्तु ग्राहक मानने में कोई विरोध नहीं है, अत एव प्रत्यक्षत्व और सत्संप्रयोगजत्व इन दोनों के बीच व्याप्यव्यापकभाव
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org