SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः २२२ ति यत्तु 'नापि शब्दात तत्सिद्धिः' इत्यादि प्रतिपादितं, तव सिद्धसाध्यतादोषाघ्रातत्वान्निरस्तम् । यदप्युक्तम् 'ये देश-काल-इत्यादिप्रयोगे नाऽसिद्धो हेतुः' इति, एतदप्ययुक्तम् , अनुमानस्य तदुपलम्भस्वभावस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वेनाऽनुपलम्भलक्षणस्य हेतोः परप्रयुक्तस्याऽसिद्धत्वात् । अत एव 'सव्यवहारनिषेधश्चानुपलम्भनिमित्तोऽनेन' इत्याद्यसारतया स्थितम् ।। _ 'अथ यथाऽस्माकं तत्सद्भावाऽऽवेदकं प्रमाणं नास्ति तथा भवतां तदभावाऽऽवेदकमपि नास्ति' इत्यादि यावत् 'प्रसंगसाधनाभिप्रायेण सर्वमेव सर्वज्ञप्रतिक्षेपप्रतिपादकं युक्तिजालमभिहितम्' इति यदुक्तं तदप्यचारु । यतः 'सर्वज्ञो दृश्यते तावन्नेदानीम'.... [ श्लो० सू०२-११७] इत्यादिना तत्सद्भावोपलम्भकप्रमाणपंचकनिवृत्तिप्रतिपादनद्वारेण यद् अभावस्यप्रमाणप्रवृत्तिप्रतिपादनं तव तवभावावेदकस्वतन्त्राभावाख्यप्रमाणाभ्युपगमव्यतिरेकेणाऽसभवद् भवतां मिथ्यावादितां सूचयति । यदप्यवादि तथा च प्रसगसाधनाभिप्रायेण भगवतो जैमिनेः सूत्रम्' इत्यादि, तदप्यसंगतम् , यतः प्रसंगसाधनस्य तत्पूर्वकस्य च विपर्ययस्य व्याप्यव्यापकभावसिद्धौ यत्र व्याप्याभ्युपगमो व्यापका 'शब्द से सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं हो सकती' इत्यादि जो आपने कहा है वह तो हमारे लिये इष्ट होने से आपके लिये सिद्धसाध्यता दोषाकान्त होने से ही विध्वस्त हो जाता है । "जो देशकालस्वभाव से दूरतमवर्ती होते हुए सद् वस्तु के उपलम्भक प्रमाण के विषयभाव को प्राप्त नहीं होते हैं वे सद्व्यवहार मार्ग के राही नहीं हो सकते" इस अनमानप्रयोग के समर्थन के उपसंहार में आपने कहा था कि हेतु असिद्ध नहीं है-यह बात भी अयुक्त है क्योंकि हम आगे यह दिखाने वाले हैं कि सर्वज्ञोपलम्भकस्वभाव अनुमान का सद्भाव है । अत: आपका प्रतिपादित अनुपलम्भस्वरूप हेतु असिद्ध ही है । अत एव आपने जो कहा है कि-'अनुपलम्भमात्रनिमित्त के बल से अनेक स्थान में सद्व्यवहार का निषेध किया जाता है' इत्यादि वह सब प्रस्तुत में उपयोगी न होने से सार हीन है । [प्रसंगसाधन में प्रतिपादित युक्तियों का परिहार ] सर्वज्ञवादी को ओर से आशंका को व्यक्त करते हुये- 'जैसे हमारे पास सर्वज्ञ का सद्भाव प्रदर्शक प्रमाण नहीं है वैसे उसका अभाव प्रदर्शक प्रमाण भी नहीं है'....इत्यादि....जो आपने कहा था और उसके खण्डन में फिर । सर्वज्ञ के खण्डन में जो युक्तिवाद कहा गया है वह सब प्रसंगसाधन के अभिप्राय से कहा गया है'' इत्यादि....कहा गया था, वह भी अचारु-अशोभन है । कारण, आपने श्लो० वा० के 'सर्वज्ञ अभी तो देखा नहीं जाता'....इत्यादि मीमांसक मत का अवलम्बन करते हुये सर्वज्ञ के विषय में उसके सद्भाव के प्रतिपादक प्रत्यक्षादि पाँचों प्रमाण की निवृत्ति के प्रदर्शन द्वारा जो अभावनामक प्रमाण की प्रवृत्ति का सर्वज्ञ के विषय में प्रदर्शन किया है वह सर्वज्ञाभावप्रदर्शक स्वतन्त्र अभावनामक प्रमाण को माने विना संभव ही नहीं है, जब कि आप नास्तिक प्रत्यक्ष से अतिरिक्त प्रमाण ही नहीं मानते हैं फिर अभावप्रमाण का आलम्बन करके सर्वज्ञ का प्रतिवाद करना यह आपको मिथ्यावादिता का ही प्रदर्शन है। [प्रत्यक्षा और सत्संप्रयोगजत्व की व्याप्ति असिद्ध ] यह जो आपने कहा था-'भगवान् जैमिनि का जो यह सूत्र है, सत्सम्प्रयोगे....इत्यादि, वह भी प्रसंगसाधन के अभिप्राय से ही है' इत्यादि....वह भी असंगत है, क्योंकि सर्वज्ञ के विषय में प्रसंग और विपर्यय की प्रवृति ही आप नहीं दिखा सके हैं-जैसे, प्रसंगसाधन की प्रवृत्ति तब होती है जब किसी दो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy