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________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः २२१ अथ यस्य प्रतिभासानन्तरं यत्प्रतिभास एकज्ञाननिबन्धनः तयोः तदवगम इति नायं दोषः। तदपि घटप्रतिभासानन्तरं पटप्रतिभासे क्वचिद् ज्ञाने समानम् । न च क्रमभाविपदार्थद्वयप्रतिभासमन्व. ग्येकं ज्ञानमिति शक्यं वक्तुम् , प्रतिभासभेदस्य भेदनिबन्धनत्वात् , अन्यत्रापि तदभेदव्यवस्थापित्वाद भेदस्य, स च क्रमभाविप्रतिभासद्वयाध्यासितज्ञाने समस्तीति कथं न तस्य भेद: ? न चैकमेव ज्ञानं जन्मानन्तरक्षणादिकालमास्त इति भवतामभ्युपगमः । तदुक्तं-"क्षणिका हि सा, न कालान्तरमास्ते" इति । में तत्पर रहने से ही धूमस्वरूप के संवेदन में तत्पर हो नहीं सकता। जब धूम के संवेदन का अभाव है तब धूमनिरूपित अग्नि की कारणता का भी बोध अशक्य है। प्रतियोगी (=संबंधी) के स्वरूप का भान न रहने पर उसके प्रति किसी की कारणता का या तत्संबंधी किसी अन्य धर्म का ग्रहण शक्य नहीं है । कारण, अतिप्रसंग की संभावना है, अर्थात् किसी एक वस्तु का ज्ञान हो जाने पर विना संबंध ही सारे जगत का बोध हो जाने की अनिष्ट आपत्ति को यहाँ आमन्त्रण है। द्वितीय पक्ष में, धूम के स्वरूप का ग्राहक प्रत्यक्ष धूम में अग्निसापेक्ष यानी अग्निनिरूपित कार्यत्वस्वभाव का या अग्निजन्यत्वस्वभाव का ग्राहक है-यह यदि माना जाय तो यहाँ यह सोचिये कि जब धूमग्राहक प्रत्यक्ष अग्निस्वरूप के ग्रहण में प्रवृत्त ही नहीं हुआ है तो अग्नि गृहीत न होने पर अग्निनिरूपित धूमनिष्ठ कार्यता का बोध कैसे शक्य है ? यदि यह कहा जाय कि-हम नया ही पक्ष मानते हैं कि धूम और अग्नि दोनों के स्वरूप को ग्रहण करने वाला प्रत्यक्ष उन दोनों के कार्य-कारण भाव का निश्चायक होगा-तो यह भी असंगत ही है क्योंकि दोनों का ग्राहक प्रत्यक्ष केवल उनके स्वरूप को ही प्रकाशित करता है, किन्तु धूम के प्रति अग्नि की कारणता अथवा अग्नि के प्रति धूम की कार्यता को प्रकाशित नहीं करता। अपने अपने स्वरूप में अवस्थित एक साथ एक ज्ञान के विषय बन जाने मात्र से उनके बीच कार्य-कारण भाव प्रकाशित नहीं हो जाता है । अन्यथा घट पट का भी एक ज्ञान में प्रतिभास होने से उन दोनों के बीच कार्य-कारणभावग्रह हो जायेगा। [ एक ज्ञान का प्रतिभासद्वय में अन्वय असिद्ध | यदि यह कहा जाय कि -"जिस ज्ञान में एक बार एक वस्तु का प्रतिभास हुआ और उसी ज्ञान से तत्पश्चाद् दूसरी वस्तु का प्रतिभास होता है उन दो वस्तु के बीच उसी ज्ञान से कार्य-कारणभाव का भी बोध होता है. अतः कार्यकारणभाव का बोध न होने का कोई दोष नहीं है।" ों है।"-तो यह घटपट के प्रतिभास में भी समान है, अर्थात् जब कोई एक ज्ञान में घट प्रतिभास के बाद पट का प्रतिभास होगा तो वहाँ घट और पट के बीच में भी कार्यकारणभाव अवगत हो जाने की आपत्ति होगी। दूसरी बात यह है कि कार्य और कारण क्रमभावि वस्तू है, क्रमभावि वस्तु द्वय का प्रतिभास एक ही अन्वयी ज्ञान में होता है यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्रतिभास का भेद वस्तुत: भेद का कारण होता है । यह व्यवस्था अन्य स्थान में भी कही गयी है कि सर्वत्र वस्तुभेद प्रतिभासभेदमूलक ही होता है । यहाँ जिस एक ज्ञान में आप भिन्न भिन्न वस्तु का प्रतिभासद्वय मानते हैं वह ज्ञान भी क्रमशः होने वाले दो प्रतिभास से आक्रान्त ही है तो उस ज्ञान का भी भेद क्यों न माना जाय? तात्पर्य, उसको एक ज्ञान नहीं मान सकते । आप यह मानते भी नहीं है कि एक ही ज्ञान जन्मक्षण के बाद दूसरीतीसरी आदि क्षणों के काल में टीकता है । जैसे कि आपने कहा है कि-संविद् क्षणस्थायी होती है, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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