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________________ २१० सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १ अभ्यास जनितं तदिति पक्षः तथाहि ज्ञानाभ्यासात् प्रकर्षतरतमादिप्रक्रमेण तत्प्रकर्षसम्भवे तदुत्तरोत्तराभ्याससमन्वयात् सकलभावातिशयपर्यन्तं संवेदनमवाप्यत इति । तदपि मनोरथमात्रम्, तोऽभ्यास हि नाम कस्यचित् प्रतिनियतशिल्पकलादौ प्रतिनियतोपदेशसद्भाववतो जन्मतो जनस्य संभाव्यते नतु सर्वपदार्थविषयोपदेशसंभवः । न च सर्वपदार्थविषयानुपदेशज्ञान संभवो येन तज्ज्ञानाभ्यासात् सकलज्ञानप्राप्तिः, तत्संभवे वा सकलपदार्थविषयज्ञानस्य सिद्धत्वात् किमभ्यासप्रयासेन ! किच, तदभ्यासप्रवर्त्तकं ज्ञानं यदि चक्षुरादिप्रतिनियतकरणप्रभवमप्यन्येन्द्रिय विषयर सादिगोचरम् अतीन्द्रियार्थगोचरं च स्यात् तदा पदार्थशक्तेः प्रतिनियतत्वेन प्रमाणसिद्धायाः श्रभावात् प्रतिनियत कार्यकारणभावाभावप्रसक्तिसद्भावात् सकलव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः । हुआ धर्म का ग्राहक होता है उसी प्रकार उपर्युक्त प्रत्यक्ष से विलक्षण योगी के प्रत्यक्ष से धर्माद गृहीत होने में कोई विरोध नहीं है । सर्वज्ञविरोधी कहता है कि इस विलक्षण प्रत्यक्ष के ऊपर चार में से एक भी विकल्प घट नहीं सकता जैसे १-वह प्रत्यक्षज्ञान क्या अमुक ही प्रकार के नेत्रादि से जन्य है ? या २ - अभ्यासजन्य है ? अथवा ३ - शब्दजन्य है ? या ४ अनुमान के सहकार से उपकृत है ? प्रथम विकल्प - धर्मादिग्राहक ज्ञान को नेत्रादिजन्य नहीं माना जा सकता क्योंकि नेत्रादि इन्द्रिय तद् तद् रूप-रसादि विषय के ग्रहण में ही सशक्त होने का नियम सर्वविदित होने से नेत्रादिजन्य ज्ञान धर्मादि का ग्राहक नहीं हो सकता । इसीलिये तो इस विकल्प में 'यदि षड्भिः' इत्यादि कारका से जो पूर्व में उपहास रूप दूषण कहा गया है कि एक ही प्रमाण से सर्व वस्तु का ज्ञाता जिनको मान्य है उनके पक्ष में नेत्रादि से सर्व रस गन्ध आदि का भी ग्रहण होता होगा - इत्यादि, यह नहीं टाल सकते । [ सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष अभ्यासजनित नहीं है ] यदि यह पक्ष माना जाय कि - " धर्मादिग्राहक प्रत्यक्ष अभ्यास जनित है, जैसे कि - ज्ञानाभ्यास से बोध के प्रकर्ष में तर तम भाव आदि का प्रक्रम यानी परम्परा से ज्ञान के उत्कर्ष का जब संभव दिखाई देता है तो उत्तरोत्तर अभ्यास के समन्वय यानी सम्यगासेवन से सकल पदार्थों की चरम सीमा को लाँघने वाला संवेदन प्रगट होता है ।" तो इस पर विरोधी का कहना है कि यह निष्फल मनोरथ मात्र है । कारण, जन्म से लेकर क्रमश: अमुक अमुक शिल्प कलादि के विषय में उत्तरोत्तर तत् तत् प्रकार के उपदेश का सद्भाव यानी प्राप्ति जिस पुरुष को होती है उसको अमुक अमुक शिल्पकलादि के अभ्यास होने की संभावना है किन्तु सर्व पदार्थों के विषय का उपदेश आयु अल्पतादि के कारण, संभवित ही नहीं है । तथा उपदेश विना सर्व पदार्थविषयक ज्ञान का संभव भी नहीं है जिससे कि उपदेशप्रयोज्य ज्ञानाभ्यास का संभव हो, और सर्वविषयक ज्ञानाभ्यास का संभव न होने से सकलाथज्ञानप्राप्ति भी कल्पनामात्र है । यदि सर्वार्थविषयकोपदेशानुकुल ज्ञान का संभव माना जाय तब तो उसीसे सर्वार्थविषयक ज्ञान भी सिद्ध हो जाने से अभ्यास द्वारा धर्मादिग्राहक प्रत्यक्षसिद्धि का प्रयास व्यर्थ है । दूसरी बात यह है कि यदि वह अभ्यास प्रवर्तक ज्ञान, नेत्रादि तत् तत् इन्द्रियरूप करण से जन्य होने पर भी अन्येन्द्रिय के विषयभूत गन्ध-रसादि को विषय करेगा, अथवा अतीन्द्रिय अर्थ को ग्रहण करेगा, तो 'पदार्थों की शक्ति प्रतिनियत यानी मर्यादित ही होती है' यह बात प्रमाणसिद्ध नहीं हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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