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________________ २०६ सम्मतिप्रकरण -नयकाण्ड १ अथ किचिज्ज्ञत्वाद्यभावे सर्वत्र वक्तत्वं न भवति-इत्यत्र प्रमाणाभावान्नाऽसर्वज्ञ-वक्तत्वयो: कार्य-कारणभावलक्षणः प्रतिबन्धः सिध्यति, तहि-वयभावे धमः सर्वत्र न भवतिभावस्तुल्य इति न प्रतिबन्धग्रहः । अथान्यभावेऽपि यदि धमः स्यात तदाऽसौ तद्धतक एव न भवेत-इति सकृदयहेतोरग्नेस्तस्य न भावः स्यात् , दृश्यते च महानसादावग्नित इति नानग्नेधूमसद्भाव इति प्रतिबन्धसिद्धिः। ननु यथेन्धनादेरेकदा समुद्भूतोऽपि वह्निरन्यदाऽरणितो मण्यादेर्वा भवन्नुपलभ्यते, धूमो वा वह्नित उपजायमानोऽपि गोपालघुटिकादौ पावकोदभूतधमादप्युपजायते इत्यवगमस्तथा कदाचिदग्न्यभावेऽपि भविष्यतीति कुतः प्रतिबन्धसिद्धिः ? ___ अथ यादृशो वह्निरिन्धनादिसामग्रीत उपजायमानो दृष्टो न तादृशोऽरणितो मण्यादेर्वा, धूमोऽपि यादशोऽग्नित उपजायते न तादृश एव गोपालघटिकादावग्निप्रभवधमात् । अन्यादृशात तादृशभावे तादृशत्वमहेतुकमिति न तस्य क्वचिदपि प्रतिनियमः स्यात् , अहेतोर्देश-काल-स्वभावनियमाऽयोगादिति नाग्निजन्यधूमस्य तत्सदृशस्य वाऽनग्नेर्भावः, भावे वा तादृशधमजनकस्याग्निस्वभावतैवेति न व्यभिचारः । तदुक्तम्"अग्निस्वभावः शकस्य मूर्द्धा यद्यग्निरेव सः । अथानग्निस्वभावोऽसौ धम-तत्र कथं भवेत्" ॥ इत्यादि । तदेतद् वक्तृत्वेऽपि समानम् इच्छा न होने पर भी सहसा शब्दोच्चार हो जाता है इस प्रकार वचनोच्चार कामना के अभाव में भी वक्तृत्व का संवेदन सभी को प्रसिद्ध है। इस व्यभिचार का निवारण यह कह कर नहीं हो सकता कि 'वहाँ पूर्वकालीन (यानी जाग्रत कालीन) विवक्षा ही हेतु है' क्योंकि ऐसा मान लेने पर तो विवक्षा और शब्दोच्चार के बीच नियत ढंग का कार्य कारणभाव न रहने से सभी को जाग्रद् अवस्था आदि में भी पूर्व पूर्व कालीन विवक्षा से ही शब्दोच्चार होने की आपत्ति होगी। सारांश यह कि वचन का निमित्त विवक्षा है ऐसा एकान्त नियम सिद्ध नहीं है क्योंकि 'विवक्षा के अभाव में शब्दोच्चार का भी अभाव होना चाहीये' यह व्यतिरेक सिद्ध नहीं है। तथा 'जब भी विवक्षा होती है तब शब्दोच्चार होता ही है' ऐसा अन्वय तो सिद्ध ही नहीं है बल्कि जब अल्पज्ञता या रागादिमता होती है तब शब्दोच्चार होता है यह अन्वय सिद्ध ही है । [ असर्वज्ञता-वक्तृत्व के कार्य-कारणभाव की असिद्धि अन्यत्र तुल्य ] ___ यदि यह कहा जाय कि-'अल्पज्ञतादि के अभाव में कहीं भी वक्तृत्व नहीं होता है इस तथ्य में कोई प्रमाण नहीं होने से असर्वज्ञ और वक्तृत्व का कार्यकारणभावात्मक व्याप्ति नियम सिद्ध नहीं होता है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अन्यत्र भी धूमाग्नि में यह बात समान है-जैसे, 'अग्नि के अभाव में धूम कहीं भी नहीं होता है इस बात में भी प्रमाण का न होना तुल्य है अतः धूम-अग्नि में भी व्याप्ति सिद्ध नहीं होगी। यदि यह कहा जाय कि- "अग्नि के विरह में यदि धूम रहेगा तो वह अग्निजन्य नहीं होगा, फिर तो एक बार भी अग्नि से धम की उत्पत्ति नहीं होगी। किन्तु देखते तो हैं कि पाकशाला में अग्नि से उसकी उत्पत्ति होती है। अतः अग्नि के विरह में धूमोत्पत्ति न होने से दोनों की व्याप्ति सिद्ध है"- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इन्धनादि से एक बार अग्नि की उत्पत्ति होती हयी देखने पर भी दूसरी बार अरणिकाष्ठ के घर्षण से अथवा सूर्यकांत मणि आदि से भी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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