SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद: १६३ नाप्यर्थापत्तितस्तदभावावगमः, तस्याः प्रमाणत्वेऽनुमानेऽन्तर्भूतत्वात् । तथाहि-'दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यदृष्टार्थकल्पनाऽर्थापत्तिः' [ मीमां० शाबर० स० ५ पृ० ८, पं० १७ ] । नचासावर्थोऽन्यथानुपपद्यमानत्वानवगमे अदृष्टार्थपरिकल्पनानिमित्तम्-अन्यथा स येन विनोपपद्यमानत्वेन निश्चितस्तमपि परिकल्पयेत्, येन विना नोपपद्यते तमपि वान कल्पयेत्-अनवगतस्यान्यथानुपपन्नत्वेन अर्थापत्युत्थापकस्यार्थस्थान्यथानुपपद्यमानत्वे सत्यप्यदृष्टार्थपरिकल्पकत्वाऽसंभवात् . संभवे लिंगस्याप्यनिश्चितनियमस्य परोक्षार्थानुमापकत्वं स्यादिति तदपि नार्थापत्त्युत्थापकादाद भिद्येत । स चान्यथानुपपद्यमानत्वावगमस्तस्यार्थस्य न भूयोदर्शननिमित्तः सपने, अन्यथा 'लोहलेख्यं वज्रम् , पार्थिवत्वात , काष्ठवत' इत्यत्रापि साध्यसिद्धिः स्यात् । नापि विपक्षे तस्यानुपलम्भनिमित्तोऽसौ, स्मृति-उपस्थित धेनुरूप वस्तु उपमान प्रमाण का विषय कैसे होगा ? अब यदि आप उपमान प्रमाण से अपूर्ण प्रत्यक्ष वाले वर्तमान सकल अल्पज्ञपुरुष की भांति अतीत-अनागत सभी पुरुष को अपूर्णप्रत्यक्षवाले सिद्ध करना चाहते हो तो यहाँ वर्तमानकालीन सकल पुरुष उपमान हुआ और अतीतानागत सकल पुरुप उपमेय हुआ-उन सभी का यानी अतीत-वर्तमान-अनागत सकल पुरुषों का साक्षात्कार मानना आपके लिये आवश्यक हो गया । यदि यह मान लिया तब तो ऐसे साक्षात्कार का कर्ता ही सर्वज्ञ सिद्ध हुआ फिर उपमान प्रमाण से सर्वज्ञ का अभाव मानना कहाँ तक उचित होगा ? इसलिये, अतीतअनागतकालीन लोगों के ज्ञान में वर्तमानकालीन लोगों के ज्ञान की तुल्यता को सिद्ध करने के लिये आपने श्लोक वात्तिक में जो यह कहा है कि -"वर्तमान लोगों में जिसप्रकार के प्रमाणों से जिसप्रकार का अर्थ दर्शन दिखा जाता है, अतीतानागत काल में भी वह ऐसा ही होता था"-यह आपका कथन ध्वस्त हो जाता है, क्योंकि उपरोक्त रोति से प्रस्तत विवादास्पद विषय में उपमान प्रमाण की प्र ही शक्य नहीं है, कारण, वर्तमान में सकल पूरुषों के प्रत्यक्ष का संभव नहीं है। [ अनुमान में अन्तभूत अर्थापत्ति स्वतन्त्र प्रमाण ही नहीं है ] अर्थापत्ति प्रमाण से सर्वज्ञाभाव का पता नहीं लग सकता। कारण, यदि वह प्रमाण मानी जाय तो भी उसका अनुमान में ही अन्तर्भाव हो जाता है । वह इस प्रकार - "देखा हुआ या सुना हुआ अर्थ अन्य प्रकार से उपपन्न न होने पर अदृष्ट अर्थ की कल्पना की जाय-यही अर्थापत्ति है" यह शाबरभाष्य का वचन है। इससे तो यह फलित होता है कि जिस अर्थ की अन्यथानुपपत्ति अज्ञात हो वह अदृष्ट-कल्पना का निमित्त नहीं बन सकता । अन्यथा, यदि अन्यथानुपपत्तिज्ञान विना भी वह अदृष्टार्थकल्पनानिमित्त होगा तो जिस के विना उसकी उपपत्ति निश्चित है उस अर्थ को भी कल्पना करा देगा क्योंकि अन्यथानुपपत्ति न हो या अज्ञात हो दोनों में कोई फर्क नहीं है। अथवा जिसके विना उसको अनुपपत्ति है किंतु अज्ञात है उसकी भी कल्पना नहीं करायेगा क्योंकि अापत्ति का उपस्थापक अर्थ, अन्यथानुपपत्ति के होने पर भी 'अन्यथा अनुपपन्न है' इस प्रकार से ज्ञात नहीं होगा तब तक वह अष्टार्थ की कल्पना का निमित्त बने यह संभव नहीं है। यदि संभव हो, तब अनुमान में भी, जिस लिंग का अपने साध्य के साथ नियम ज्ञात नहीं है वह भी परोक्ष अर्थ के अनुमान को जन्म देगा, इस प्रकार अनुमान और अर्थापत्ति के प्रयोजक क्रमशः लिंग और अर्थ में क्या अन्तर रहा? Jain Educationa International www.jainelibrary.org For Personal and Private Use Only
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy